प्रेम कविता

प्रेम पर यूं ही नहीं लिख दी जाती है 
कोई कविता।

जब कोई देह 
उतर आती है समर्पण की वादियों में
कानों में समा जाती है कोई खास आवाज़
जुबां पर बैठ जाती है ख़ामोशी
जब हर आंख की आकृति हो जाती है बस एक-सी
तब 
धड़कनों का शोर हो जाता है गीत.. 
उदासी का तो कभी खुशी का।

उसी गीत के स्वरों को जहनियत में बिठाकर
अनंत शून्य में प्रवेश की कोशिश 
तिल-मिलाकर फूट पड़ती है अनायास ही
कविता रुप में।


तारीख: 14.04.2024                                    ललित ढिल्लों




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