प्रेम

प्रेम आत्मा का प्रकाश है
जिसकी ज्योति-गंगा में नहाकर
आदमी परम पावन बन जाता है
फिर प्रेम का नाम सुनते ही
इस दुनिया की भौंहें आखिर क्यों तन जाती है ?

प्रेम तो पुरुष और नारी दोनों की ही
अंतरात्मा होता है
जिसमें उस परम तत्व की आराधना के स्वर होते हैं
फिर नारी की ही प्रेमाराधना पर 
कलंक का टीका क्यों ?
क्यों किसीसे उसकी बातचीत पर भी प्रतिबंध लगाया जाता है ?

पता नहीं कब यह दुनिया ऐसी ओछी और
दूषित मानसिकता से  मुक्त होगी
और कब वह प्रेम की दिव्यता का दर्शन कर खुद पवित्र हो सकेगी ?

प्रेम तो प्राणिमात्र का स्वत्वाधिकार है
उसके अस्तित्व का प्रमाण है

उसे उससे वंचित कैसे किया जा सकता
है ?

प्रेम सारे दैहिक बंधनों से परे होता है
वह असीम होता है
उसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता ।

ओ अपनी भौतिक सीमाओं में संकुचित दुनिया
उसकी इस भौतिकता से परे दिव्यात्मा को
लांछित मत करो !
लांछित मत करो ! !


तारीख: 05.02.2024                                    नीतू झा









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