नारायण दो तीन दिन की छुट्टी की सिफारिश लगा कर, अपने केबिन की तरफ तेज़ कदमों से बढ़ता है उसके
चेहरे पर अशांति साफ-साफ दिख रही थीं।
अपना बैग कंधे पर टाँगकर वो गेट की तरफ बढ़ा ही था कि तभी उसके बैंक के एक क्लर्क हरि प्रसाद ने टोका, "
क्या शर्मा जी, कब है गृह प्रवेश।
नारायण अपनी बाँहों से माथे पर आती पसीने की बूँदों को पोंछते हुए अगले दिन निमंत्रण पत्र भिजवाने की बात
कहते हुए दो दिन बाद का मुहूर्त बताता है ।
नारायण अधीर था उसे घर जाने की जल्दी थी और शर्मा जी कुछ देर गप्पे मारने के मूड में थे । अच्छा बधाई हो
आपको, पर अपना पुराना घर छोड़ने में बड़ी तकलीफ होती है और आप तो अपने भरे पूरे परिवार के साथ रहते हैं,
चलिए मिलते तो रहेंगे।
जी, नारायण ने कहा। ऑफिस से निकल कर रास्ते की धक्का मुक्की, ऑटो, बस, पैदल तब कहीं जाकर घर पहुँचने
पर भी शांति न मिलने का कारण घर में आपसी मतभेद और क्लेश था।
रास्ते भर शर्मा जी की बातें उसके ज़ेहन में हठी बादलों की तरह उमड़- घुमड़ रही थीं और उसे व्यंग की भाँति चुभ
रही थीं। वो कभी अपनी कमियों की तलाश में डूब जाता तो कभी खुद को कोसता,जब कभी बेचैन होकर
सुबह की सैर पर निकलता तो सुबह की ताज़ा हवा भी उसे बासी और उबाऊ लगती ।
अगर आप सुंदरता या शांति को अपने अंदर नहीं ढूंढ पाए तो बाहर वो मिलने से रही।
दुनिया का खूबसूरत कैनवास भी बेरंग और फीका लगता था नारायण को। मन में बस एक ही बात कि
पिताजी क्यों उससे दूर थे। चाहकर भी अपनी बात उनसे न कह पाना अब उसका व्यवहार बनता जा रहा
था।
नारायण उन दिनों को याद करता है जब पिताजी को नल पर नहाते देखना उसे बेहद पसंद था, सुबह-
सुबह खुले में ठंडे पानी से पिताजी का नहाना उसके लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था, इतनी अल
सुबह जब कि सूरज ने आँख खोली ही हो और सूर्य, नमस्कार स्वीकार करने में अलसा रहा हो।
वो इतनी सुबह सिर्फ पिताजी को देखने के लिए उठा करता था।
पूजा करते हुए पिताजी एक तपस्वी का वेश धारण करते और उनका हठयोग ऐसा कि पूजा पूरी होने के
पहले हिलते न थे।
अगर पूजा के बीच कोई अड़चन आ जाए तो वो फिर से कर्मकांड दुहराते।
याद है जब एक माँ के बीच में टोक देने के बाद, उन्होंने पूरा दिन कर्मकांड में झोंक दिया और सीधे रात
में कोई निवाला अपने मुँह में डाला था।
घर में लोगों का आना जाना लगा ही रहता, लोग उनको दंडवत प्रणाम करते और अपना भविष्य पूछते,
कुछ लोगों को अपने मृत्यु तिथि जानने की जिज्ञासा होती तो कोई अपना स्वभाव उनके मुँह से सुनने
की इच्छा रखता और अपना आचरण और बखान सुनकर गदगद होता।
नारायण को लोगों की इन आदतों से बड़ी कोफ़्त होती।
आखिर अपना भविष्य जानकर क्या करना चाहते हैं लोग।
शायद वो उसी हिसाब से अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं, और उससे तनिक भी इधर उधर होने पर डर
जाते हैं।
इसलिए ऐसी कायरता और इतना विश्वास दोनों विरोधी चीजें एक ही जगह दिख जातीं ।
घर में सिर्फ पढ़ने की इजाज़त थी, दोस्ती, यारी इन सबसे दूर रहकर, बच्चों को घर के काम भी करने
पड़ते ।
पिता से दूरी बच्चों में एक झिझक पैदा करती है और उन्हें खुलने नहीं देती। नारायण के मेहनती, अनुशासित होने
के बावजूद पिताजी को उससे कोई न कोई समस्या बनी रहती थी। नारायण कभी समझ नहीं पाया कि पिताजी
हमेशा उससे असंतुष्ट क्यों रहते हैं, वह हमेशा यही सोचता कि शायद बड़े होने के कारण वो उससे ज़्यादा
ज़िम्मेदारियों की अपेक्षा करते हैं।
हर रिश्ता ऐसे ही चल रहा था, नारायण की नौकरी लग जाने के बाद उसने शहर में मकान बनवाने के लिए लोन
करवाया था। मकान बनकर तैयार था, उसके दोनों भाई, माँ और नारायण की पत्नी जो अब एक बच्चे
की माँ थी के साथ रहने लगे थे।
पिताजी को हमेशा यह लगता कि नारायण घर पर हक जता रहा है, बातों बातों में वो झुंझला जाते और
नारायण को ताने देते जो असहनीय और गले की उस हड्डी जैसा था कि न कुछ कहते बने ना चुप रहते
बने।
कुछ भी कहने पर उसे बात बिगड़ जाने का डर था, जब बिना किसी बात के इतनी बात बढ़ी हो तो फिर
किसी बात का क्या फायदा।
खाने को मिले न मिले पर कलेश से और किच- किच से बड़ी कोफ़्त थी पर नसीब भी ऐसा के सब कुछ
मिल जाए पर शांति का दूर दूर तक नामो निशान नहीं।
बाबूजी के मनो भावों को जान लेने के बाद घर में सभी को जैसे खुली छूट सी मिल गयी कुछ भी कहने
और सोचने की।
मरता क्या न करता इसी वजह से उसने दूसरा घर,पुराने घर से बीसों किलोमीटर की दूरी पर बनवाया।
इन्हीं झंझावातों के चलते कच्ची उमर से ही उसका रूझान आध्यात्म की ओर हो गया था ।आलम ये था
के नारायण कितना भी थक हार के घर आये पर अपना वो बक्सा जरूर खोलता था जिनमें बहुत से
ग्रंथ, आध्यात्मिक किताबें और शांति को कहाँ ढूंढे जैसे मोटे हेडिंग वाली पतली पुस्तिकाएं भी थी। इनमें
से हर किताब को दो या दो से अधिक बार पढ़ा गया था, और आगे भी पढ़े जाने की उम्मीद सशक्त रूप
ले रही थी।
ज्ञान की बहती धारा ही थी जो सबकी कही सुनी बातों को वो उसी धारा में बहाता गया। पिताजी के रूखे
बर्ताव के बावजूद शांत बना रहा और खुद की कमियों को ढूँढने में अपना ज्यादा समय बिताया।
पर बात कोई हो तो उसकी पकड़ में भी आये।
मालिक बनने जैसा ना उसने कभी सोचा ना वैसी ऐंठन थी उसमें।
ये सारी बातें उसके कलेजे को बेध रही थीं। अपने ही जब शूल बनकर रास्ते में बिछ जाएं तो ज़िंदगी का
सफर कितना दुरूह हो जाता है।
सरपट दौड़ती ऑटो और विचारों की तीव्र गति से आते जाते लहरों के साथ मानो अचानक वह धम्म से
अपने घर के दरवाजे पर पहुँच जाता है, उसे रास्ते की दूरी का अनुमान ही नहीं हुआ, उसे लगा के जैसे
वो उड़कर घर पहुँच गया हो।
घर में घुसते ही पिताजी का कमरा पड़ता है जो नारायण के घर में रहने से जितने उद्विग्न थे, उससे
कहीं अधिक उसके जाने से।
वो चाहते क्या थे वही बता सकते थे।
नारायण अपने कमरे में पहुँच कर बेड पर सिर टिकाकर लेट गया। दिन भर की थकान और मन
मस्तिष्क के विचारों के बोझ से उसकी तबियत और खराब लग रही थी क्योंकि मन का बोझ शारीरिक
बोझ से कहीं पीड़ा दायी होता है।
नारायण के घर छोड़कर जाने की बात से घर वाले भी ज्यादा दुखी नहीं मालूम पड़ते थे।
घर बनवाने की वाहवाही अब ढोंगी के पद में तब्दील हो चुकी थी, सभी सुर में सुर मिला रहे थे ।
नारायण ने अपनी पत्नी से चाय का आग्रह किया, बड़े थके लग रहे आप नारायण की पत्नी जो शराफत
में उससे भी बढ़कर थी, दबे स्वर में पूछा।
बस यूँ ही, नारायण ने बात टालते हुए चाय लाने का इशारा किया, घरवालों के बर्ताव से दोनों अंजान
नहीं थे।
वह चाय बनाने के लिए फ्रिज से दूध निकालती है कि देवरानी जी आकर खड़ी हो जाती हैं, प्रतिमा
तुम्हारे लिए भी चाय बना दूँ क्या,
प्रतिमा मुँह फेर लेती है, आप अपना देखें मुझे ज़रूरत होगी तो बना लूंगी।
स्मिता बहुत दुखी थी, रिश्ते और नाते क्या इतने पराये हो जाते हैं के रोकना तो दूर, बस चले तो अभी
रवाना कर दें।
नारायण चाय की चुस्कियाँ लेता है, बड़ी फीकी है!
बेमन से बनाई क्या तुमने।
मन की ऐसी इच्छा क्यों होती है कि सब इसके मुताबिक हो,
मैं हूँ या कोई और सब यही चाहते हैं।
सच बताओ अगर उनकी बात मानकर तुम्हारा आपरेशन नही कराता तो क्या आज हमारे बच्चे बिना माँ
के ना होते।
हर बात कैसे मानी जा सकती है जब बात जिंदगी और मौत की हो।
उनके हिसाब से हमारे घर में शल्य चिकित्सा सहती नहीं ।
आप ये सब क्यों सोच रहे,
तो क्या समझूँ उनकी नाराजगी की वजह।
अब तो हम जा ही रहे, स्मिता ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
पर मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा, नारायण सर पकड़ लेता है।
ऊपर से दो दो लोन, दो मकान बनवाने का, सैलेरी के पैसे उसमें ही जा रहे, बहुत सीमित संसाधनों में
गृह प्रवेश करना होगा।
जाकर पिताजी को बोलूँ चलने को। बार बार मन को तैयार करने के बावजूद परिणाम से डर लग रहा।
कब ग़ुस्सा फूट पड़े उनका खैर कहना तो होगा।
हिम्मत बाँधते हुए कमरे की ओर बढ़ा, अंदर जाने में झिझक महसूस हो रही थी पर किसी तरह कमरे में
दाखिल हुआ, फिर क्या था हलक से कुछ फूटता ही नहीं, बड़ी जद्दोजेहद के बाद, बिना रूके एक ही
साँस में उन्हें नए घर के गृह प्रवेश का न्यौता दे डाला।
पिताजी भी ठहरे ज़िद्दी, ठूँठ से बने रहे, कानों में ऐसी लहर दौड़ गयी के साँप सूंघ गया।
पिताजी जी के चेहरे के गुस्से से साफ था कि वो किस शिद्दत से नारायण को कोसने वाले थे, स्थिति
भाँपकर नारायण ने बैकफुट पर होना बेहतर समझा।
बिना कोई उत्तर लिए खाली हाथ, योगियों की भाँति चल पड़ा। स्मिता ने बड़े उम्मीद भरी निगाहों से देखा
तो नारायण बोल पड़ा, क्या उम्मीद कर सकता हूँ, जितनी उम्मीद थी उतना भी हो जाए तो भगवान
को लड्डू चढ़ाऊँ। पर भगवान भी जाने कब ऐसा मौका दिखाएँगे।
शुभ मुहूर्त के पहले सब नए घर में पूजा के लिए पहुँच गए थे, पर नारायण को अनायास का इंतज़ार था
के शायद पिताजी आ जाएँ, पर घर का कोई सदस्य पूजा में दिखा तक नहीं।
शाम को नारायण तारों को घूर रहा था, मन ही मन सोच रहा था, मेरे लिए न सही, समाज के लिए, या
वो भी नहीं तो बच्चों की खातिर तो आ सकते थें।
पर कैसी विवशता कि उनसे अधिकार से कहने या लड़ने की हिम्मत भी नहीं होती।
दिन बीत रहे थे, शांति की बयार चहुँ ओर थी, बच्चे भी नए घर को नए तरीकों और साजो- सामान के
साथ सजाने में ज्यादा समय देते थे।
पर ये कैसी शांति थी जो बाहर- बाहर ही थी, अंतर्मन को छूती भी न थी, मन व्यग्र था।
मेरा अपना घर था, भाईयों में मतभेद था पर अब उन्हें कई दिनों तक बिना देखे मन जैसे भरता नहीं
था, एक योगी की राह पर चलने वाले को भी इतना मोह।
वो खुद को धिक्कारता है। पर एक अदृश्य डोर थी जिससे वो बंधा था, पर अब तो ऐसा बंधा के वापसी
का कोई रास्ता नहीं।
मिलते जुलते ऑफिस में लोगों से पता चलता रहता के बंधु बांधव भी बड़ा पछता रहे और हमेशा याद
करते हैं, पर बाबूजी की कोई खबर न देता।
क्या वो मुझे याद करते होंगे, ऐसा प्रश्न नारायण के सामने था जिसके उत्तर का अनुमान भी उसे खुद
लगाना पड़ता।
हर रात कुछ देर सोच में बीतती फिर जाकर निद्रा देवी की कृपा होती,पर आज हुआ यूँ कि रात होते ही
थकान के कारण सब जल्दी सो गए, अर्धरात्रि में कुछ खटर पटर की आवाज से स्मिता की नींद खुली तो
उसे अंदाज़ा हुआ के बाहर की सीढ़ी के रास्ते कुछ चोर छत पर चढ़े हुए हैं। कुछ छः सात लोग थे, स्मिता
की जबान सूखने लगी, पास पड़े पानी के जग से पानी पिया फिर उसे वहीं गिरा दिया कि शायद शोर से
चोर डर के मारे चलते बने पर चोर भी शायद पूरी तैयारी के साथ आये थे। स्मिता ने सबको जगाया,
बच्चे स्तब्ध थे कि इतनी रात गए माँ आखिर क्यों जगा रही हैं
बच्चे नींद से उबरे भी नहीं थे कि स्मिता ने इशारे से कमरे की खिड़की से गैलरी में टहलते लोगों की
परछाईं दिखाई।
सीढ़ियों से उतरते हुए उनके कदमों की आवाज़ से बच्चों की घिग्घी बन्ध गयी।
नारायण को सूझ नहीं रहा था कि क्या किया जाए दिमाग ने पूरी तरह साथ छोड़ दिया।
परिस्थितियों के आगे सर झुकाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, छोटे- छोटे बच्चों को लेकर भागे भी तो
कहाँ।
बच्चों के चेहरे का डर ऐसा था कि माँ बाप कोई सांत्वना भी नहीं दे पा रहे थे। दरवाजे के ऊपर भारी
पत्थर से पूरे शक्ति से प्रहार किया जा रहा था।
दरवाजे की कुंडी टूटते हुए देखना ऐसा था जैसे नदी में डूबा इंसान आखिरी बार पानी के ऊपर एक दफा
साँस लेने आया हो और घुप्प। पानी ही पानी।
यहाँ पानी पसीने का था जो ऐसे असीम स्रोत्र से बहती थी कि खत्म ही न होती।
जैसे किसी विशाल काय दानव ने जीवंत रूप लेकर सबको एक ही बार में निगलने की प्रतिक्षा में बड़ा सा
मुँह खोल दिया हो।
नारायण ने बच्चों से पूजा घर में चलने को कहा जो कि उस कमरे से जुड़ा हुआ था। ऐसा लगता था
मानो भगवान के अलावा अब कोई बचा नहीं सकता।
ऐसी परिस्थिति में आपका आस्तिक या नास्तिक होने की बात सोचना बेमानी सा लगता है, अगर आप
नास्तिक भी हैं तो भी आपके पास दूसरा कोई चारा नहीं हो सकता।
सभी चोर अंदर आ चुके थे और बिना समय गंवाये सबसे छोटे बच्चे को उन्होंने अपनी बंदूक की नोक के
लिए सटीक समझा। तमंचे की अपने माथे पर होने की सोच ही आपको अधमरा करने के लिए काफी
होती है, और उसपर वो बच्चा जिसे सबसे कमज़ोर नब्ज़ की तरह उन्होंने इस्तेमाल किया।
ताकि बिना किसी ना- नुकुर के सभी कीमती चीजें खुद उन्हें भेंट में दे दी जाएँ।
सबने अब मौन साधा और चोरों से आग्रह किया गया के वो जो चाहें ले जा सकते हैं पर, किसी को
नुकसान ना पहुचाएं।
नारायण दो कर्ज़ों में खुद दबा था, ले दे कर स्मिता के गहने और साड़ियाँ थीं जो चोर ले जा सके।
सुबह हुई तो सुगबुगाहट में तेजी आई, आस- पास के लोग मजमा जुटाने लगे, पूछताछ होने लगी।
पर नारायण को कोई शिकायत नहीं लिखानी थी न किसी पर शक था।
सीधा साधा आदमी इन प्रपंचों से दूर रहना चाहता है पर, जंजाल थे कि हाथ धो कर पीछे पड़े थे। शाम
होते होते वही मंजर आँखों के सामने गहराने लगा। बच्चों का हाल बुरा था, उन्हें वो घर एक भूतखाने से
कम नहीं लग रहा था
किसी की हिम्मत न पड़ती घर में जाने की, एक तो नया घर ऊपर से ऐसी घटना, बहुत पुरानी यादें हों,
पुराना घर हो तो बात और थी।
नारायण खुद थका हुआ और बेदम सा। इतनी मेहनत के बाद घर तैयार हुआ था और ये सब जो किसी
डरावने सपने की तरह आँखों के आगे से जाता ही ना था।
ऐसी घटना के बाद सही सलामत बचे रहने को ही वो दूसरा जन्म और भगवान का दिया हुआ दुसरा
मौका मानता है। वापस उसी घर में अब जाना उस दूसरे मौके को गंवाने जैसा था सबके लिए।
मन में ही सही अब वो बुरा ख्याल नहीं लाना चाहता था वो, इन सबसे वो बस दूर हो जाना चाहता था।
सबने पड़ोसी के घर में सोने का फैसला किया।
दूसरे के घर में नींद कहाँ आती है, जैसे तैसे रात बीती, बड़ी बोझिल और भारी, उसके पहले भी रात में
जागना पड़ा था। अब तो बस सुकून चाहिए था।
इसी उहापोह में नारायण लगा था कि किसी ने कुशल क्षेम पूछने के बाद बाबूजी जी का संदेश कह
सुनाया।
मन में खुशी की लहर दौड़ पड़ी, एक क्षण न गँवाते हुए नारायण ने स्मिता से पूछा, पिताजी ने वापस
बुलाया है।
स्मिता नारायण की दशा से खूब परिचित थी, जिसमें आपको तस्सली हो , अब यहाँ रहना मुश्किल तो
है।
सब खुश, खासकर बच्चे।
बच्चों को पुराने दोस्त मिलने वाले थे।
पुराने घर पहुँचते ही बाबूजी से मिलने के लिए नारायण कमरे में गया, बाबूजी टस से मस न हुए।
नारायण लौटने लगा तो बाबूजी ने खामोशी तोड़ी, बड़ों की राय के बिना किये गए काम का परिणाम है,
अब भुगतो। बाबूजी खुश तो थे पर दिखाते न थे।
नारायण को फिर महसूस हुआ के वो जिस शांति की तलाश में है, वो नहीं मिलने वाली, खैर घर में भी
सब खुश थे पर कब तक।
रोज़ तक-झक छोटी मोटी बातों पर।
नारायण ने पास में खाली पड़े प्लॉट की तरफ निगाह की।
" दूर रहने से प्रेम बना रहता है,शांति भी रहती है ,कहकर स्मिता की ओर देखने लगा।
स्मिता हँसने लगी, और ज़्यादा दूर भी नहीं है।