दिल्ली, हम और OLA

 

रोज़ की तरह मेट्रो के लिए हम घर से जनवरी की ठंढ में बिना नहाए निकल चुके थे। हमने हफ्ते भर से अपना जैकेट नहीं बदला था। लग रहा था जैसे ऑफिस में CEO अब जैकेट बदलने का अल्टीमेटम दे देगी . खैर इसी उधेड़बुन में मेट्रो की सीढ़ियों तक पहुंचे और ध्यान आया की लोग गणेश कचौड़ी वाले की दूकान के सामने से लाइन लगाये खड़े हैं. महसूस हुआ जैसे की यातना झेलने के लिए भी एक और यातना. 

एक बार सर उठा के ऊपर आकाश की ओर देखा , लगा जैसे उड़ती हुई चिड़िया हम पर ज़ोर ज़ोर से हस रही है . वो भी आकाश में लाइन बना के उड़ रही थीं, मगर उनकी चाल में आज़ादी का अनुभव था. खैर हम आज़ादी की दुनियां से यथार्थ पे वापिस आए , याद आया की OLA ने कभी हमें ऑफर दिया था की " GET YOUR FIRST RIDE FREE " . लगा जैसे DDA flats की लॉटरी में सबसे पहला नाम हमारा ही है . 

समय बहुत तेज़ी से बदलता है . पहले राजा अपने सारथी से कह कर रथ निकलवाते थे . अब राज पाठ खत्म हुआ और लोग जेब से smarthphone निकल कर अपने राजा होने की घोषणा कर देते हैं. हमने भी स्मार्टफ़ोन निकाला और OLA रिज़र्व कर लिया . Marx के socialism की class division की थ्योरी अब भी मान्य है. IPhone 6s वाले OLA LUXURY लेते हैं और बजट से टाइट साधारण स्मार्टफ़ोन वाले लोग OLA शेयरिंग लेते हैं . अगर आपका ड्राइवर, नेवी के जवान जैसी टोपी लगा कर आया तो आप VIP होते हैं और अगर साधारण सा आपकी तरह दिखने वाला कोई ड्राइवर एक साधारण गाड़ी ले कर आता है तो आप OLA जैसे startup की बड़ी फंडिंग के beneficiary हैं.

हमने OLA शेयरिंग को ही चुना . देखा की तीन मिनट में कैब आ रही है . और एक मिनट बाद मुझे फ़ोन आया और तब से लगने लगा की सफर अच्छा रहेगा . सोच कर ही दिल खुश हुए जा रहा था की पहली बार किसी गाड़ी में किसी अनजान लड़की के साथ जाना होगा . उसकी गाड़ी सामने आ कर रुकी मई बैठने के लिए आगे बढ़ा . मगर ज़िन्दगी इतनी आसान कहाँ है . हर कदम पर इसमें जटिलता है. बहुत बड़े dilemma में ज़िन्दगी के वो 2 सेकंड गुज़रे. आगे की सीट ख़ाली थी और पीछे की सीट पर एक टिफ़िन रखा था. मैं ठीक वैसे संकोच में था जैसे की आप maggi की एक लम्बी सिप किसी के सामने खींचने में कतराते हैं. हमने सोचा की संकोच करने से अब तक बहुत बड़े बड़े काम हम से होते होते रह गए. आज नहीं. आज अंदर के बिहारी को हमने अंदर ही रखा . और अगला गेट खोला और बैठ गए . बैठ कर लगा की इतनी देर में लाखों ख़यालों पे बिना मतलब के हीं हमने चिंतन कर लिया.

लड़की खूबसूरत थी और हम बेगानी शादी वाले अब्दुल्ले के जैसे खुश हो रहे थे. गाड़ी में FM बज रहा था और कोई अदना सा गायक अपनी बेसुरी आवाज़ को इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक की आड़ में छिपा रहा था. थोड़ी देर में बिना कुछ कहे उसने चैनल बदल दिया और अब थोड़ा सुकून सा था. अब धीरे धीरे बातें होने लगी , कभी ऑफिस की और कभी दिल्ली के अर्बन लाइफ की. हम अक्षरधाम तक आ चुके थे. और वहां पर एक ट्रैफिक वाले ने गाडी रोकने के लिए इशारा किया . मै तब तक अपनी जेब पे हाथ रख चूका था . अब दुविधा ये थी की हमने बाइक पे तो ट्रैफिक वालों से हाथ मिला कर काम चलाया था मगर कभी कार की डीलिंग नहीं की थी. उसने कहा की तुम रुको, कोई प्रॉब्लम नहीं है . उसने सारे कागज़ ऐसे निकल कर उस ताऊ को दिए जैसे कोई ग्रेजुएशन के 1st डिवीज़न का रिजल्ट अपने पडोसी को दिखाता है . 

ख़ैर अब मुद्दे की बात पर आते हैं. हम इतनी देर उसे बस बातें करते देख रहे थे , अंदर कुछ मीठे लड्डू फुट रहे जैसे की कोई लावारिस बच्चा MC -D के बाहर से शीशे के अंदर बैठे लोगों को देखता है. हम अंदर ही अंदर सोच रहे थे की कभी और मिलने की कोई बात हो मगर लग रहा था जैसे हमारी सोच भगवन के spam फोल्डर में जा रही थी. 

अब 5 मिनट में हम ऑफिस पहुँचने वाले थे और अभी तक कहीं दोबारा मिलने की बात नहीं हुई थी . हमारी शकल किसी अस्पताल के डायरिया वार्ड के कमोड की तरह बन गयी थी. हमने आख़िर हिम्मत किया और उससे पूछ लिया की तुम रोज़ ऑफिस इसी वक़्त जाती हो क्या ? उसने बस हाँ कहा और बात बदल दी . लगा जैसे किसी लंगूर को किसी बच्चे ने चिड़ियांघर में बहुत देर तक केला दिखा कर वापिस जेब में रख लिया हो. 

फिर थोड़ी देर बाद हमारा ऑफिस आया और हमने फॉर्मल सा हाथ हिला कर बाई किया और आगे निकल गए. आगे दिन सुहाना हो चला था... थोड़ी गरम सी धुप नाले के पानी पर गिर कर चमक रही थी..... OLA से हमें थैंक यू मैसेज आ चूका था. 

मैंने अपना फ़ोन निकला और देखा एक दूसरा मैसेज आया था. फिर मैंने कानों में गाना लगाया जिसमें पियूष मिश्रा कह रहे थे " के उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनाएंगे घर.... ". 

उस दुसरे मैसेज में लिखा था " "Lets meet tomorrow at same time & spot : Pragya ". 

 


तारीख: 10.06.2017                                    मनीष शाण्डिल्य




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