“अरे...यह क्या कर रहे हो...छोड़ो न...”
“कुछ नहीं...सच तो यह है कि तुम्हारी इन लटों को सुलझाना...उफ्फ जाने क्या हो जाता है मुझे तुम्हें इस रूप में देखकर…”
“हटो भी...हर समय मुझे छूने का मौका ढूँढ़ते रहते हो...मैं यहाँ आया ही नहीं करूँगी...”
“अच्छा तो फिर कहाँ जाया करोगी?” अब तक उसने तूलिका को अपनी बाहों में इतना कस लिया था कि दोनों की आती जाती साँसें एक दूसरे को महसूस हो रही थीं।
“कहीं भी जाऊँ...पर यहाँ न...नहीं...” दो अँगुलियाँ अब तक तूलिका के होठों पर थीं।
तूलिका की आँखें बन्द हो चुकी थीं। अधर कँपकँपा रहे थे जैसे उन्हें किसी के अधरों के स्पर्श की प्रतीक्षा थी... “रहने दो न...अजीब सी गुदगुदी होने लगती है...जब तुम छूते हो...” उसने धीरे से कहा लेकिन... एक झटके के साथ उसकी आँखें खुल गईं और बीती यादों का सिलसिला एकदम टूट गया। उसने खुद को राजपुर रोड पर पाया। इधर-उधर देखकर पता लग रहा था कि उसकी कार जाम में फँसी है। उसने ड्राइवर से पूछा, “क्या हुआ?” “जाम लगा है दीदी” ड्राइवर ने तुरन्त उत्तर दिया।
“उफ्फ...” वह थोड़ी विचलित हो उठी। उसने घड़ी देखी, ‘ग्यारह बज रहे हैं...अब तक तो आ गए होंगे’ उसने मन ही मन कहा। कार का शीशा थोड़ा-सा खोला। ठंडी हवा ने उसके गुलाबी गालों को छुआ तो वह मुस्कुरा उठी जैसे उसे कुछ याद आ गया हो। अपने गालों पर हवा का हल्का ठंडा स्पर्श उसे किसी के होंठों के स्पर्श की तरह लगा...वह फिर से बीती दिनों को याद करने लगी। हर बात हर घटना उसके मानस पटल पर चित्र की भाँति चलने लगी...
‘तब वह बीस वर्ष की थी और फाइन आर्ट्स की छात्रा थी। पिताजी का ‘ट्रांसफर’ मसूरी हो गया था। मसूरी का नाम सुनते ही वह रोमांचित हो उठी थी। वैसे भी पहाड़ों के चित्र तो उसने बहुत देखे ही नहीं बनाए भी थे लेकिन वे सारे तो चित्र थे। सच में पहाड़ कैसे लगते होंगे यह सोचकर उन्हें देखने के लिए वह उतावली हो उठी। पिताजी के साथ पूरा परिवार मसूरी ‘शिफ्ट’ हो गया। सचमुच के पहाड़ और वादियाँ देखकर वह बहुत खुश थी। हर समय जाड़ों का मौसम, सुबह-सुबह पहाड़ों के पीछ से निकलता सिन्दूरी सूरज वाह! लगता था वह स्वर्ग में आ गयी है। मसूरी और उसके आस-पास घूमने-फिरने में पूरा एक सप्ताह निकल गया। कभी कैम्पटी फाल, कभी कम्पनी बाग, कभी लाइब्रेरी, कभी सिस्टर बाजार तो कभी लंढौर...।
उस दिन मालरोड पर घूमते हुए उसकी नज़र एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर लिखा था ‘कलामंदिर’। अनुमान लगाया कि संभवतः यह चित्रकला से सम्बन्धित होना चाहिए। चूँकि वह स्वयं चित्रकला की छात्रा थी तो उत्सुक होना स्वाभाविक ही था। सामान्य से थोड़ा तेज़ कदम बढ़ाते हुए वह कलामंदिर की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर एक हालनुमा कमरे में पहुँची। ‘वाह!’ वहाँ का दृश्य देखते ही उसके मुँह से अनायास निकला, ‘जैसा मैंने सोचा था बिल्कुल वही...सचमुच यह तो चित्रकला का स्टूडियो है।’ स्वयं से कहते हुए उसने यहाँ-वहाँ देखा किन्तु सिवाय चित्रों के वहाँ उसे कोई और नहीं दिखा। सो वहाँ लगे चित्रों को वह गौर से देखने में लगी। यहाँ वहाँ फैले सामान, ब्रुश, विभिन्न प्रकार के रंग और अलग-अलग स्टैण्ड पर लगे कैनवस, जिनपर तरह-तरह की चित्रकारी देखकर उसे लगा कि वह किसी परीलोक में आ गयी है। उसने इतनी सुन्दर चित्रकारी कभी नहीं देखी थी। उसे देखकर मानों उस पर जादू हो गया था। सम्मोहित सी वह कभी इधर देखती तो कभी उधर...हर चित्र मानों उससे कुछ कहता हुआ प्रतीत होता, ‘बहते झरने को तो देखो लगता है बस पानी अभी बाहर आकर फैल जाएगा...और फूल पर बैठी वह तितली बस उड़ने ही वाली है...अरे वह देखो उस लड़की के उड़ते बाल मानों हवा के झोंके के साथ उसके चेहरे पर बिखर जाएँगे...’
वह मन ही मन बुदबुदाती रही कि अचानक उसकी नज़र एक पोट्रेट पर पड़ी जिसका शीर्षक था ‘आँखें’। उस पोट्रेट में बनी लड़की की आँखें निश्चित रूप से न जाने कितने प्रश्न और कितने उत्तर का संगम लग रहीं थीं। उसकी आँखों में ऐसा सम्मोहन था कि बस अब पलक झपकने ही वाली है। वह उस पोट्रेट में पूरी तरह खो चुकी थी कि अचानक एक पुरुष स्वर ने उसके सम्मोहन को तोड़ा, “यह एक पोट्रेट है...।” वह एकदम चौंक गयी। मुड़कर देखा कि उसके पीछे एक अट्ठाइस-तीस वर्ष का व्यक्ति नीली जीन्स और सफेद कुर्ता पहने खड़ा है। बाल लम्बे और बेतरतीब हैं, चेहरे पर हल्की-हल्की दाढ़ी से लगता है कि लगभग पन्द्रह दिनों से दाढ़ी नहीं बनी है। हल्की सी मुस्कान उसके व्यक्तित्व को निखार रही थी। उस मुस्कुराहट में एक अजीब सी कशिश थी। उसने देखा तो जैसे उसकी ओर खिंचाव सा लगा। लेकिन शीघ्र ही उसने स्वयं को सँभाल लिया। उसे समझते देर न लगी कि यही कलामंदिर के कलाकार हैं, क्योंकि कालेज में एकबार सर ने बताया था कि ‘जो जितना बड़ा कलाकार होता है उसके व्यक्तित्व में उतना ही आकर्षण होता है जो बरबस ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता है।’
“आपको पेंटिंग्स कैसी लगीं?” उस मुस्कुराते चेहरे ने प्रश्न किया।
“इट्स ऑसम...आपने बनाई हैं...” उसने तुरन्त उत्तर दिया।
“हम्म...ऑल मोस्ट...मेरी ही हैं...लेकिन मेरे स्टूडेण्ट्स की भी हैं जो यहाँ सीखने आते हैं।” कुछ ब्रुश और रंगों के ट्यूब्स को एक डिब्बे में डालते हुए उसने कहा।
“आप...आप पेंटिंग सिखाते हैं?” प्रश्न के साथ खुशी उसके चेहरे पर थी।
“जी हाँ...यह मेरा ही स्टूडियो है” उसने हँसते हुए कहा, “आपका परिचय?”
“जी मेरा नाम तूलिका है....मेरे पापा का ट्रांसफर यहाँ हुआ है। अभी एक हफ्ते पहले ही हम यहाँ शिफ्ट हुए हैं। मैं फाइन आर्ट्स की स्टूडेंट हूँ...क्या आप...आप मुझे सिखाएँगे?” वह एक ही साथ सबकुछ कह गयी और उसके चेहरे की ओर देखने लगी।
“मैं क्या सिखा सकता हूँ किसी को...सीखना तो खुद ही होता है...” मुस्कुराते हुए उसने दार्शनिक अंदाज में कहा।
“तो मैं कब से आऊँ?” उसने झट से पूछा।
“आपकी मर्जी है...सीखना आपको है...जो समय आपको उपयुक्त लगे।” उसने एक स्टैण्ड पर कैनवास रखते हुए कहा।
“सुबह दस बजे या ग्यारह...आप ही बताइए...” उसने कहा।
“ग्यारह ठीक है...आप आ सकती हैं” उसने कैनवास का आँकलन किया।
“अ...और फीस...” उसने संकोच से कहा।
“हा हा हा....फीस भी ले लेंगे...पहले आप आइए तो...मैं भी तो देखना चाहता हूँ कि आपके साथ कितनी मेहनत करनी होगी?” उसने अपना सिर हिलाते हुए कहा।
“थैक्यू सर...थैंक्यू वैरी मच सर...मैं कल से ही आ जाऊँगी।” कहते हुए वह बहुत खुश थी।
“आपका स्वागत है...वेलकम” कहकर उसने कोरे कैनवास पर ब्रुश चलाना शुरू कर दिया।
वहाँ से आने का मन तो नहीं था फिर भी वह इस खुशी में सीढ़ियों से नीचे उतर कर माल रोड पर आ गयी कि कल से ड्राइंग पेंटिंग की क्लासेज शुरू होने जा रही है। वह भी इतने अच्छे कलाकार से... ‘अरे मैंने उनका नाम तो पूछा ही नही’ अचानक उसे याद आया, ‘चलो कल पूछूँगी’ स्वयं को समझाकर वह तेजी से घर की ओर चल पड़ी।
कलामंदिर और कलाकार अब तक सैकड़ों बार उसके मस्तिष्क में आ चुके थे। सारी रात वह कलामंदिर के स्वप्न देखती रही थी। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि उस कलाकार में एक आकर्षण है। ‘शायद यह उसका भ्रम हो’, खुद को कई-कई बार समझाया। रात गहरा रही थी और उसी में नींद ने भी आकर उसे अपने पाश में कब बाँध लिया पता ही नहीं चला।
पहाड़ों की सुबह बहुत सुन्दर होती है। धीमे-धीमे सूरज आकाश की ओर लाली बिखेरता हुआ चढ़ता है और कोहरा नीचे की ओर बैठता जाता है। हर ओर एक स्निग्धता, कोमलता और मीठी-मीठी धूप बिखर जाती है। ऊँची पहाड़ी पर चीड़ के पेड़ों के बीच से आती धूप की किरणें सबके मन पर ढेरों चित्र बनाने लगती हैं। पहाड़ों के सूर्योदय का सौन्दर्य देखते ही बनता है। “क्यों आज से पेंटिंग क्लासेज नहीं जाना...उठ जा बेटा...साढ़े आठ बज चुके हैं” पास के स्टूल पर चाय का प्याला रखकर माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“क्या साढ़े आठ...ओह बहुत देर हो गयी” वह झट से उठ बैठी।
“चलो...नहा धोकर, फ्रेश होकर आओ मैं नाश्ता लगाती हूँ” माँ के मीठे स्वर के साथ उसने चाय की चुस्की ली।
सड़क पर चहल पहल थी। उसने घड़ी देखी, “साढ़े नौ बज रहे हैं...मैं समय से पहुँच जाऊँगी।” सोचते हुए वह सामान्य गति से कलामंदिर की ओर बढ़ने लगी। पता नहीं क्यों उसे बार-बार उस कलाकार की मुस्कुराहट याद आ रही थी। न जाने कैसा खिंचाव है उसकी मुस्कुराहट में। यही सब सोचते हुए वह कलामंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर हाल में आ गयी। उसने देखा कि कलाकार किसी तस्वीर में तल्लीनता से लगा हुआ है। उसकी तल्लीनता तोड़ने के लिए उसने धीरे से कहा, “गुड मार्निंग सर...”
“ओह...आ गयी आप...आइए...” कलाकार अपने कैनवास को एक कपड़े से ढँककर पीछे मुड़ते हुए बोला।
वह उसकी तरफ आया और उसकी आँखों में देखकर मुस्कुराते हुए बोला, “वैसे मेरा नाम संगम है...आप मुझे संगम कहकर भी बुला सकती हैं... ‘सर’ बहुत फार्मल लगता है।”
“ज...जी...पर आप तो...” संगम की आँखों में देखते ही न जाने उसे क्या हो गया, “ठीक है...” कहकर वह सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी।
“तूलिका जी...यह रहा कैनवास...आपके हाथों का जादू देखने के लिए यह स्वयं को आपके हाथों में समर्पित करता है...लीजिए...उठाइए ब्रुश और रंग और शुरू हो जाइए” उसने एक नया कैनवास स्टैण्ड पर लगाकर उसकी ओर किया।
वह एक दम सकपका गयी, “पर मुझे तो...मैं तो खुद आपसे सीखने आई थी...और आप...”
“अरे पहले मैं देखूँ तो कि आपको क्या आता है, उसी हिसाब से मैं आपको सिखाऊँगा न...चलिए शुरू हो जाइए” उसने इतने प्यार और आत्मीयता से कहा कि उसने ब्रुश से उस कैनवास पर चित्र बनाना शुरू कर दिया। संगम भी अपने उसी कैनवास की ओर चल दिया जिसपर वह पहले से ही चित्र बना रहा था। लगभग आधे घंटे बाद तूलिका ने उसे पुकारा, “देखिए...बस और तो कुछ मेरी समझ में नहीं आ रहा...।”
संगम उसकी तरफ आया और चित्र देखकर मुस्कुराने लगा, “हम्म...चित्र तो अच्छा है लेकिन सचमुच बहुत कुछ सीखना पड़ेगा आपको...” और उसने ब्रुश उठाकर उस चित्र को ठीक करना आरंभ कर दिया। तूलिका संगम के हाथ में चलते ब्रुश को देखकर और उससे अपने ही चित्र पर होते सुधार को देखकर आश्चर्य चकित रह गयी। मन ही मन बुदबुदाती, ‘वाह...क्या सधा हुआ हाथ है...छूते ही मेरा चित्र कमाल का बन गया। सचमुच इनमें कोई दिव्य शक्ति है।’ पन्द्रह मिनट तक कुछ सुधार करने के बाद संगम ने कहा, “यह देखिए...इस प्रकार हाईलाइट लगाते हैं। रंगों का संयोजन आँखों को अच्छा लगने वाला होना चाहिए चुभने वाला नहीं...” वह संगम की ओर देखकर मंत्रमुग्ध सी उसकी बातें सुन रही थी। संगम भी उसे चित्रकला की बारीकियाँ बताने में लग गया।
समय बीतता रहा। एक दिन तूलिका जैसे ही हाल में पहुँची उसने देखा कि लगभग बारह वर्ष का एक लड़का हाल की सफाई कर रहा है। पूछने पर पता चला कि उसका नाम जगत है और वह नेपाल का रहने वाला है। कल रात संगम जिस होटल में खाना खा रहा था वहीं से उसे अपने साथ ले आया क्योंकि प्लेट टूट जाने के कारण होटल मालिक उसे बुरी तरह पीट रहा था। संगम से देखा न गया और उसने उसे अपने साथ रख लिया। यह सब जानकर तूलिका का हृदय संगम के लिए अपार श्रद्धा और प्रेम से भर गया। इतने में संगम भी वहाँ आ गया। “ओह...तो मैडम जी बातों में व्यस्त हैं...अरे अपनी पेंटिंग पूरी कीजिए...” उसने हँसते हुए कहा। जगत अब तक बाहर जा चुका था। तूलिका ने संगम की ओर देखकर पूछा, “आपकी पेंटिंग का क्या हुआ जो इतने दिनों से आप बना रहे हैं...एक बार दिखाइए तो...”
“न...न...अभी नहीं...चार दिन बाद दिखाऊँगा...” उसने कहा।
“चार दिन बाद क्यों...”
“क्योंकि उसमें अभी कुछ कमी है...और मैं आज बाहर जा रहा हूँ...चार दिन बाद लौटूँगा...तब दिखाऊँगा...” कहते हुए वह तूलिका के पास आ गया।
“चार दिन के लिए बाहर...” तूलिका का खिला हुआ चेहरा एकदम मुरझा गया, “तो मैं....मेरा मतलब है स्टूडियो बन्द रहेगा?”
“नहीं...आप चाहें तो आकर अपना अभ्यास कर सकती हैं...” संगम ने कहा।
“पर...कहाँ जा रहे हैं...क्यों जा रहे हैं?” उसने बेचैन होकर पूछा।
“अरे...अरे इतना परेशान क्यों हो रही हो...जगत को एक स्कूल में प्रवेश दिलवाने जा रहा हूँ...उसको यहाँ रखूँगा तो पढ़-लिख नहीं पाएगा...इसलिए उसे एक स्कूल में प्रवेश दिलवाकर उसके रहने-खाने का प्रबंध करके चार दिन में लौट आऊँगा।” उसने बहुत प्यार से कहा।
“जगत...” उसने मन में सोचा कि आजकल जब लोग अपनों का साथ नहीं देते यह एक गैर बच्चे के लिए इतना कर रहे हैं। सचमुच यह एक दिव्यपुरुष हैं। तूलिका के मन में संगम के प्रति प्रेम उमड़ने लगा। उसने संगम का हाथ पकड़ लिया और हिचकते हुए बोली, “मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ...अगर आपको बुरा न लगे तो...”
“मुझसे प्यार करती हो...यह कहना चाहती हो न...” संगम ने उसके हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर कहा।
“अ...आप कैसे जानते हैं, क्या जादूगर हैं आप...” उसकी आँखें फटी रह गईं, पर अगले ही पल उसने अपनी पलकें झुका लीं, “सचमुच आप जादूगर ही हैं और आपका यह स्टूडियो एक परीलोक सा है...सबकुछ कितना अनोखा और सम्मोहित करने वाला...आई रियली लव यू संगम...” अगले ही पल खुद को संभालते हुए बोली, “पर आपको कैसे पता कि मैं...”
“जो रंगों की पूजा करते हैं...उनके लिए प्यार का रंग सबसे पहले दिखाई दे जाता है...आई लव यू टू...तूलिका...” कहकर उसने तूलिका के चेहरे को अपने हाथों में ले लिया माथे पर अपने होंठ रख दिये। तूलिका लजाकर दूसरी ओर चली गयी।
उसके मानस पटल पर यह सब चल ही रहा था कि ड्राइवर ने आवाज दी, “दीदी...मंदिर पर थोड़ी देर रुक जाएँ...?” “अँ...हाँ हाँ...लेकिन ज्यादा देर मत करना...” कहकर वह कार से बाहर निकल आई और मंदिर की ओर निहारने लगी। उसे याद आने लगा कि ‘वह संगम के साथ सबसे पहले इसी मंदिर में आई थी। उसने और संगम ने मिलकर भगवान शिव की पूजा की थी। उस समय दोनों के ही मन में एक दूसरे का जीवन साथी बनने की इच्छा उत्पन्न हुई थी।
‘ पुरानी बातें याद करके उसके चेहरा गुलाबी हो गया। उसे याद आया कि ‘जगत को स्कूल में भर्ती कराकर जब चार दिन बाद संगम वापस लौटा और वह उससे मिलने गई तो पैकिंग पेपर में लिपटा एक कैनवास उसे देते हुए संगम ने कहा था ‘हैप्पी बर्थडे’। उसने पैकिंग पेपर हटाया तो अपनी ही इतनी सुन्दर तस्वीर देखकर वह खुशी और आश्चर्य से पुलक कर संगम से लिपट गई और संगम ने उसे कस कर पकड़ लिया। खुद को सँभालते हुए उसने न चाहते हुए भी संगम की बाहों से स्वयं छुड़ाने की असफल चेष्टा की और संगम ने कहा था कि रहने तो मत बाहर जाओ मेरी बाहों से तूलिका तो कलाकार के हाथों में ही अच्छी लगती है...और संगम ने उसे माथे, गालों और अधरों पर चूमकर अपने प्यार का रंग भर दिया।‘ और तस्वीर को वहीं रखकर बोला, “अपने मंदिर की देवी को यहीं स्थापित करूँगा...।” और उसकी तस्वीर सामने की दीवार पर लगा दी। वह बहुत-बहुत खुश थी उस दिन।
ड्राइवर मंदिर के दर्शन करके आ चुका था। वह झटपट कार में बैठी और कार मसूरी की नागिन जैसी सड़कों पर चलने लगी। वह फिर अपने सुनहरे अतीत की ओर मुँह करके बैठ गयी। उसे वह दिन कभी नहीं भूलता जब संगम ने उसका चित्र उसे देकर कहा था ‘यह मेरे कलामंदिर की देवी का चित्र है’ सचमुच उसने अपनी इतनी सुन्दर तस्वीर कभी नहीं देखी थी। उसे संगम की हर बात याद आ रही थी। उसने उससे कहा था कि “तुम गुलाबी साड़ी में बहुत सुन्दर दिखती हो...बसंत पंचमी पर मेरा जन्म दिन है, उस दिन तुम गुलाबी साड़ी में ही आना।“ लेकिन शायद विधाता को कुछ और मंजूर था बसंत पंचमी से पहले ही उसके पिता का तबादला इलाहाबाद हो गया और तीन ही दिन में उसे मसूरी से जाना पड़ा। उस दिन वह संगम से मिलकर बहुत रोई थी, “मैं जा रही हूँ...” संगम ने उसे प्यार से चूमकर कहा था, “ऐसा नहीं कहते...कहो मैं फिर आऊँगी...कुछ बनकर आऊँगी...।” जिस दिन वह मसूरी से चली थी उस दिन संगम भी मसूरी से बाहर था। वह केवल एक पत्र उसके लिए छोड़कर आई थी। कितना तड़पी थी उनसे एक बार मिलने को लेकिन कोई फायदा नहीं।
आज पूरे सात साल बाद वह संगम से मिलने जा रही थी। इलाहाबाद में थी तो पत्रों का सिलसिला था लेकिन इलाहाबाद से फिर पापा का तबादला गुवाहटी हो गया। फिर तो जैसे पत्रों का सिलसिला थम सा गया। अब जब पापा सेवानिवृत्त होकर लखनऊ शिफ्ट हो गए और वह भी फाइन आर्टस का कोर्स कम्प्लीट करके एक कालेज में चित्रकला की प्रवक्ता बन गई तो उसे संगम से मिलने की खुशी दुगुनी प्रतीत हो रही थी। कार अपनी रफ्तार से सर्पिली सड़कों पर दौड़े जा रही थी और उतनी ही रफ्तार से उसका दिल संगम से मिलने को तड़प रहा था। आज उसने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी थी। अपने आने की पूर्वसूचना उसने संगम को नहीं दी थी। वह तो उसे ‘सरप्राइज गिफ्ट’ देना चाहती थी क्योंकि उस दिन बसंत पंचमी थी...संगम का जन्मदिन। लगभग चालीस मिनट में वह मसूरी पहुँच गई। कार को पार्किंग में ही छोड़कर वह तेज कदमों से कलामंदिर की ओर बढ़ने लगी।
मसूरी का गुलाबी मौसम उसे उसका स्वागत करता हुआ लग रहा था। सड़क के किनारे-किनारे लगे जंगली गुलाब के गुलाबी फूलों को देखकर पूरा वातावरण प्यार के रंग में रंगा हुआ लगता था जैसे सचमुच दो प्रेमियों के मिलन का साक्षी हो रहा हो। उसके तेज बढ़ते कदम एकदम रुक गये, ‘यह क्या...यहाँ तो कलामंदिर हुआ करता था...कहीं वह गलत जगह तो नहीं आ गई...नहीं...नहीं वह कैसे भूल सकती है उस जगह को...पर कलामंदिर की जगह रॉयल बार एंड रेस्टोरेंट...’ आश्चर्य और घबराहट में उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तेजी से उन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ने लगी जो कभी कलामंदिर की सीढ़ियाँ थीं लेकिन अब सफेद काले संगमरमर से और स्टील की ग्रिल से सुसज्जित सीढ़ियों पर पैर रखते हुए उसके मन में धक्का लग रहा था। लेकिन फिर भी वह ऊपर हाल तक पहुँची। हाल का कायाकल्प हो चुका था। उसे देखते ही दरबान ने उसे हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उसके लिए काँच का दरवाजा खोलकर ‘आपका स्वागत है’ बोला। वह हाल के अन्दर गयी तो देखा कि हाल में बहुत करीने से मेजे और कुर्सियाँ लगी हैं। उसे देखकर लगता ही नहीं था कि वहाँ कभी चित्रकला का स्टूडियो था। वह बेचैन कदमों से वापस आने लगी कि तभी सीढ़ियों से ऊपर आते हुए एक नवयुवक दिखा जिसका चेहरा जाना पहचाना था उसने दिमाग पर जोर डाला, ‘अरे यह तो जगत है...’ वह एक दम बोल उठी, “जगत...?”
नवयुवक ने उसकी ओर देखा, “जी कहिए...”
“य...यहाँ स्टूडियो था...संगम सर...” उसके शब्द लड़खड़ा रहे थे।
“आप...तूलिका दीदी हैं...”
“हाँ…तुमने पहचान लिया? यह रेस्टोरेंट...स्टूडियो कहाँ गया” कहते हुए उसके होंठ सूख रहे थे।
“आइए ऊपर चलकर बात करते हैं...मैं यहीं रहता हूँ...केयर टेकर हूँ इस रेस्टोरेंट का।” दोनों ऊपर हाल में आ गए। एक मेज पर बैठते हुए जगत ने कहना शुरू किया, “आपके जाने के बाद...साहब बहुत बुझे बुझे से रहने लगे थे... बीमार होने के कारण उनसे ज्यादा काम भी नहीं होता था। इस वजह से कई महीनों तक जब मेरी फीस नहीं भर पाए तो मुझे स्कूल से निकाल दिया गया और मैं यहाँ आ गया। एक रात बहुत तेज आँधी चली थी। साहब और मैं देहरादून में थे। साहब को डॉक्टर को दिखाने गया था। पता नहीं कैसे इस कलामंदिर में आग लग गई और सब स्वाहा हो गया...”
“क्या....” उसका मुँह खुला रह गया और आँखें फटी रह गईं। खुद को संयत करके बोली, “अ...और संगम...स..र..” जगत फूटकर रो पड़ा, “कुछ भी नहीं बचा...कुछ भी नहीं...” आँसू पोंछते हुए वह आगे बोला, “अगले दिन जब हम वापस आये तो सबकुछ राख ही राख देखकर साहब को जैसे दौरा पड़ गया...पागलों जैसी हालत हो गई और...उसी राख में ‘मेरे मंदिर की देवी…’ ‘मेरे मंदिर की देवी...’ कहकर कुछ ढूँढने-टटोलने लगे...” वह बताने लगा, “जोश में आकर एकदम बाहर भागे और इन्हीं सीढ़ियों से गिर गए...और...” इस बार वह और जोर से रोया।
तूलिका मानों जड़ हो गयी। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। उसका गुलाबी रंग पीला पड़ गया। अब तक घने कोहरे ने मसूरी को अपने आगोश में ले लिया था। काँच के शीशे से दिखने वाला सुन्दर दृश्य धुँधला और अस्पष्ट हो चुका था।