दो चेहरों में हम जीते यहाँ
इक अंदर का इक बाहर का
जो बाहर है चमकाते हैं
जो अंदर है दुबकातें हैं
खेल है बस ये दिखावों का
जो सुन्दर है वो बाहर है
जो मैला है वो भीतर है
किस से हम यूँ छुपाते हैं
जब शहर ही है ये छलावों का
अपनी गठरी दबाते हैं
दूजे की ढोल बजाते हैं
शीशे के घर हैं सबके यहाँ
पर सिलसिला है पथरावों का
दो चेहरों में हम जीते यहाँ.....