कभी सरल मुस्कानों सा, पर्वत मालाओं सा दुरूह कभी
लगे पुरूस्कार संसर्ग मेरा, तो महाविदग्ध मेरा साथ कभी
कभी महासिद्ध तारसप्तक सा, हूं मातृत्व सा लावण्य कभी
कभी वेश्या सा वैधव्य लगूं, तो वैदेही सा हूं कारूण्य कभी
मैं समय हूं........
आविर्भूत पराक्रम हूं, कभी अभिभावक मैं लिप्साओं का
चिर यौवन मेरी उत्कंठा, तो सम्बोधन कभी मैं चिताओं का
अबोधगम्य बेतरतीब कहीं, असंयमी अथाह स्वच्छंद कभी
कभी बेलाग बदसूरत हूं, तो सजल साश्वत अनुराग कभी
मैं काल हूं........
मोहपाश मेरा प्रतिभूत, रचता में काल अनुपम अनुप
तृणवत सी इक छाया भी, तो कभी ब्रह्मांड मेरा प्रतिरूप
लगे अतिलघु विन्यास मेरा, लगे दैत्याकार प्रकाश कभी
कभी लगे सुक्ष्म परिधि मेरी, पारलौकिक है व्यास कभी
मैं व्योम हूं........
ना किर्ती मेरी ना अपकिर्ती मेरी, ना ओर मेरा ना छोर मेरा
मुझ में ही अभिनव जन्म मेरा, खुद मुझमें छिपा संहार मेरा
हूं दुर्जन दुर्बल दुस्साहसी, तो निर्भय निर्दोष निराकार कभी
हूं अनभिज्ञ सा मायाजाल, मूझसे विशाल मेरा आकार कभी
मैं शून्य हूँ.........
बसा अरण्य के लोचन मैं, कभी अंधियारों का आभूषण हूं
कभी अनन्त गगन चैतन्य ब्रह्म, कभी नैनों से भी ओझल हूं
हूं मरघट का कभी सन्नाटा, तो राह दिखाता बन पंथ कभी
प्रीती स्नेह और राग रति, तो मौत मरण और प्रारब्ध कभी
मैं ॐ हूं........
काल कहे और समय सुनें, हो शुन्य से प्रकटित व्योम दधि
व्योम की सत्ता ॐ के हाथों, इसकी अवज्ञा सम्भव ही नहीं
समय काल और शुन्य व्योम, थे खुद में सब सम्पूर्ण सभी
"ॐ" ने इनसे मृगमरिचिका रची, जिसमें समेटे ये गुणधर्म सभी
मैं समय हूँ, मैं काल हूँ, मैं व्योम हूँ, मैं शून्य हूँ
मैं ॐ कि मृगतृष्णा का रूप इंसान हूं..........