ढलती शामों को

ढलती शामों को जब
कभी गौर से देखती हूं
तो डूबते सूरज की
लालिमा बन
दिल के बहुत करीब से
गुजर जाते हो तुम
रह रह कर बहुत
याद आते हो तुम

आंखें मूंद बिस्तर पर
जब लेटती हूं
नींद की आगोश में
कुछ ख्वाब ढूंढती हूं
इक अनदेखी सी
तस्वीर बन आंखों में
उतर जाते हो तुम
अश्रु बन दर्द भर जाते हो तुम

खेलते हुए बच्चों को
जब तकती हूं
बचपन से अपने
फिर मिलती हूं
इक मुस्कान बन
अधरों पे बिखर जाते हो तुम
कुछ यूं स्पर्श कर जाते हो तुम

रात में जब कभी
आसमां निहारती हूं
चन्द्र को देखने के लिए
आंखों को जगाती हूं
इक टूटा तारा बन
सामने से निकल जाते हो तुम
रह रह कर बहुत
याद आते हो तुम..


तारीख: 14.02.2024                                    वंदना अग्रवाल निराली




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