नमस्कार! इतिहास और स्वतंत्रता की कहानियों में मेरी हमेशा से रुचि रही है। जब मैं बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की देवी चौधरानी पढ़ने बैठी, तो लगा कि यह सिर्फ़ एक ऐतिहासिक उपन्यास होगा। लेकिन यह कहानी एक साधारण स्त्री के असाधारण रूपांतरण की गाथा है। यह उपन्यास 1884 में प्रकाशित हुआ और इसे अंग्रेजी शासन द्वारा प्रतिबंधित भी किया गया, क्योंकि यह स्वतंत्रता और विद्रोह का संदेश देता था।
कहानी की नायिका प्रफुल्ला है। उसका विवाह सम्पन्न परिवार में होता है, लेकिन उसके ससुर हरबल्लभ उसे स्वीकार नहीं करते और चोरी करके जीवन यापन करने का आदेश देते हैं। अपमानित प्रफुल्ला जंगलों की ओर निकल जाती है, जहां उसकी मुलाक़ात भवानी ठाकुर से होती है। भवानी न केवल डाकुओं के मुखिया हैं बल्कि एक विचारक भी हैं; वे प्रफुल्ला को शिक्षा, युद्ध कौशल और रणनीति का प्रशिक्षण देते हैं। धीरे धीरे प्रफुल्ला ‘देवी चौधरानी’ बन जाती है—गरीबों की सहायक और अमीरों के लिए आतंक।
यहाँ बंकिम एक रोबिन हुड जैसी नायिका गढ़ते हैं, जो सामाजिक न्याय और ब्रिटिश दमन के खिलाफ खड़ी है। वह वैभव का परित्याग करती है, संन्यासी जीवन जीती है और अपने गिरोह को नैतिक मर्यादाओं से बांधती है। climax में वह अपने ससुर और पति को अंग्रेज़ों से बचाती है और चालाकी से अंग्रेजी मेजर को पकड़ लेती है। अंततः उसका परिवार उसे स्वीकार कर लेता है, पर वह विद्रोही जीवन छोड़ घर बसाने का निर्णय करती है।
1. नारी सशक्तिकरण: प्रफुल्ला का परिवर्तन यह दिखाता है कि महिलाएँ भी नेतृत्व और क्रांति कर सकती हैं।
2. देशभक्ति और विद्रोह: उपन्यास में अंग्रेज़ शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का संदेश है।
3. नैतिकता और हिंसा: भवानी ठाकुर सिखाते हैं कि विद्रोह भी नैतिकता के साथ होना चाहिए; अनावश्यक हिंसा नहीं करनी चाहिए।
4. कुटुंब और समाज: ससुर के अत्याचार और फिर स्वीकृति से परिवार में बदलाव का संकेत मिलता है।
5. विवादास्पद अंत: कुछ आलोचकों के अनुसार, देवी चौधरानी का विद्रोह छोड़कर गृहस्थ जीवन अपनाना निराशाजनक है; पर यह उस समय की सामाजिक स्वीकार्यता का प्रतिबिंब भी था।
• यह उपन्यास आनंदमठ के बाद आया और उसे ही आगे बढ़ाता है, किंतु इस बार नायिका स्त्री है।
• अंग्रेजी सरकार ने इसे विद्रोह भड़काने वाला मानकर प्रतिबंधित कर दिया था।
• हाल के वर्षों में इसे फ़िल्म और टेलीविज़न में भी रूपांतरित किया गया है।
प्रफुल्ला का चरित्र विकास मुझे बहुत प्रेरणादायी लगा। वह मात्र ससुर से अपमानित होकर भागी थी; पर भवानी ठाकुर ने उसमें आत्मविश्वास और साहस भरा। उसने अमीरों से धन लूटकर गरीबों में बाँटने की परंपरा शुरू की और हर कार्रवाई से पहले उसकी नैतिकता पर विचार किया। मैं सोचती हूँ कि किस तरह एक पुरुष लेखक 19वीं सदी में इतनी ताकतवर महिला पात्र रच सकता है।
कहानी का अंत हालांकि कई महिलाओं को निराश कर सकता है क्योंकि प्रफुल्ला विद्रोह छोड़कर घर बसाती है। पर इसे उस काल की यथार्थवादी सीमा समझा जा सकता है—अति क्रांतिकारी अंत शायद समाज द्वारा न स्वीकार किया जाता।
• भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि और क्रांति के प्रारंभिक स्वर को समझने के लिए।
• एक महिला कैसे परिस्थितियों से लड़कर नेता बनती है, इसका प्रेरक उदाहरण।
• समाज और परिवार के ढांचे में बदलाव की झलक देखने के लिए।
इस उपन्यास ने मुझे अपनी आंतरिक शक्ति पर विश्वास करना सिखाया। मैंने महसूस किया कि किसी भी संघर्ष में नैतिकता की डोर नहीं छोड़नी चाहिए। भवानी ठाकुर और देवी चौधरानी के संवादों ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि वास्तविक नायक वही होता है जो शक्ति का प्रयोग सही दिशा में करता है। यह कहानी आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक है—कई महिलाएँ समाज के बंधनों से बाहर निकलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रही हैं।