तुम क्यों नहीं समझे पुरुष

(यह व्यंग्य कविता है ।इस के माध्यम से नारी पुरुष को प्रणय,और निवेदन और सहज प्रीति का महत्व बताना चाहती है ।साथ ही स्वयं स्थिति के लिए कभी पुरुष को तो कभी स्वयं को दोष देती है।वह व्यंग्य भाव से पुरुष से कहती है कि नारी ने तुम्हें मान-सम्मान दिया। तुम्हें अपना जीवन ही  समझ लिया । फिर क्यूँ नारी के नेत्रों में अभी भी प्यास है उसी मान-सम्मान और  प्रेम की ।यह कविता  परिवर्तन पर आधारित है) इसी विचार को प्रदर्शित करती है यह कविता “तुम क्यों नहीं समझे पुरुष” ।

 

तुम क्यों नहीं समझे
                  पुरुष ?
रोशनी के महत्व को 
जीवन के संगीत को 
श्वासों की गति को 
अन्धेरों के क्षणिक आवेश में 
परछाईयों को ही 
तलाशते रहें 
गीत, प्रणय, निवेदन 
कब पीछे छुट गया 
तुम क्यों नहीं समझे 
                   पुरुष ?
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नारी ने अपना सर्वस्व 
अपना जीवन 
और जीवन की करुणा 
सब-कुछ समर्पित किया है 
 
जिसने तुम्हें अपना सम्मान 
अपनी आशा- निराशा 
अपनी गति और अपनी जड़ता समझा 

फिर क्यूँ तुमने 
नारी की नियति में 
सम्बन्ध- विच्छेद लिख दिया 
                          पुरुष ?
कितनी सहजता से तुम 
उसके हृदय की मिठास 
और जीवन का केंद्र बन गए 
-- 


तुम क्यों नहीं समझे 
                   पुरुष ?
नारी के हृदय को 
उसके प्रगाढ़ प्रेम को 
उसकी अथाह पीड़ा और वेदना को 
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क्यों सदैव समीकरणों में ही 
तोलते रहे 
नारी के प्रेम को ?
क्यों तुम्हारी मंशा मात्र 
आलिंगन तक ही सिमटी है ?
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क्यों अधिकार दिया तुमने 
                            नारी ?
अपने ही शीशे से नाजुक 
सपनों को तोड़ने का 
मुट्ठी-भर आत्म-सम्मान को रौंदने का 

तुम्हारे नयनों में 
सम्मान झलकता रहा  
पुरुष के लिए 
फिर तुम्हारे नेत्र क्यों 
प्यासे बने रहे ?
क्यों तुम्हें सदैव गुलामी ही 
ज्यादा प्रिय लगीं ?
क्यों तुम्हें स्वतंत्र रहना नहीं आया ?
क्यों तुम सदैव पुरुष की 
राजनीति का शिकार होती रहीं ?
ध्वस्त होती रहीं 
धूल में मिलती रहीं 
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तुम क्यों नहीं समझी
                   नारी ?
तुम्हारे नेत्रों के स्वप्नों को 
मन की उम्मीदों को 
होंठों की मुस्कान को 
और देता रहा पुरुष  
पीड़ा 
सम्बन्ध- विच्छेद की 
अग्नि तपिश
जिसमें तुम खामोशी से जलती रहीं
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नहीं,  पुरुष- तुम पीड़ा को
कभी नहीं समझोगे 
हृदय में स्थान कभी नहीं दोगे 
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तारीख: 03.08.2017                                    आरती




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