धरतीपुत्रों के बारे में

मैंने देखा है उन्हें
शहरों से दूर,
तराई वाले इलाकों
और पहाड़ों की ऊँचाई पर
बने घरों में वास करते।
श्याम-वर्णित मुखड़े के पीछे
उनकी दंतावलियाँ
टिमटिमाती हैं-
 तारक-श्रृंखलाओं के सदृश,
जैसे झरने का पानी
पत्थर से फूटकर मोती बन जाता है।

गठीले बदन पर
हरे वस्त्र धरते हैं वे 'धरतीपुत्र',
कि सदियों की सेवा से उनकी आत्मा
नदियों की आश्रयनी
हो गयी हो और
कपड़ों के किनारों पर बस गया हो
पर्वतों के 'हरेपन' का स्त्रोत।

उनकी सहृदयता से ढँक जाता है
समूचा आसमान,
ज्यों उनके मन
पानीवाले घुमड़ते बादलों से मिल गये हों!
उन्हीं की जीव्यता पर टिके हैं
अधित्यका-आधार।

जंगलों के बीच,
गाँव की बाहरी बसावट पर,
यात्राओं के दरमियान
और साँझ ढले के पहले..,
मैंने कई दफा मांगी है उनकी सहायता।
उन्होंने हर बार दिखाया है
प्रकृति का विशाल हृदयागार।
मैंने भी कई बार
खरीदा है,
उनका ढोया बाँस और कोयले का बोझा-
और हर बार
उनके श्रम को निम्नतर आँका है।
जैसे उनका पसीना
भाप की जमीन पर पनपा हो।

मैं जानता हूँ उनका 'प्रेम',
क्योंकि मैंने उन्हें समूह में गाते देखा है।
मांदर की थाप पर
क्रमबद्ध कतारों में,
परस्पर झूमते देखा है स्त्री-पुरुष सबको।
उनकी परंपरा में नहीं है
स्त्रियों को कमतर मानने का 'दोहराव'।

मैं परिचित हूँ
उनकी 'प्रतिबद्धता' और 'पूजा-पद्धतियों' से;
वे लोग छायाद्रुमों की पूजा करते हैं
और आजन्म उसे बचाते हैं।
संस्कृति में उनकी
पैबस्त हैं-
कृतज्ञता के मूल तत्व।

मैंने पढ़ा है 'बिरसा' का इतिहास,
इसलिए मैं आश्वस्त हूँ
उनकी न्यायप्रियता को लेकर।
मैं हिमायती हूँ
उनके अधिकारों का-
क्योंकि मैं 'उलगुलान' और 'हूल' का अर्थ समझता हूँ।
इसलिए डरता भी हूँ
कि कहीं 'निश्चल और सच्चे'
मनों का ताप,
'दामिन-ई- कोह' के
कोयला खदानों तक ना पहुंच जाय।

हाँ!वे 'आदिवासी' ही हैं।
पर मैं उन्हें प्रहरी कहता हूँ;
प्रहरी-
जल,जंगल और जमीन के।।


तारीख: 17.02.2024                                    अंकित









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