मन मे कर्मों का ध्यान लिए
किंचित भी ना अभिमान लिए
उस एक दृश्य की अभिलाषा मे
विश्वगुरु की परिछाया मे
सजग और जागृत विश्वास लिए
सब तत्वों को सह-साथ लिए
सह धुप-घाम, पानी-पत्थर
चलते हुए स्वावलंबी पथ- पर
जब मनुज शिखर को बढ़ जाता है
मोह,माया,क्रोध,काम को
अनंतज्ञान की अग्नि मे रखकर
स्वयं आनंदित हो जाता है
अभिमानी को कस जाता है
देशभक्ति में लग जाता है
एक मुक्त प्रकृति में ढल जाता है