एक वहम रोज़ नया बनता हैं
एक चाँद कदम कदम चलता है
कोई जागे जो रात भर पूरी
तो दिन जाने क्यूँ जलता हैं
कभी लौ ए लफ्ज़ कहती है ख़त
कभी सफ़्हा कोरा जुबां बनता है
लिपट बारिश से वो ओर रंग गया
अश्क छुप कर ही ओर सजता है
निशां-ए-नूर मिलते है अक्सर
कोई चिराग अब भी कहीं जलता है