कुछ समय पूर्व कुछ शुभचिंतक मित्रो द्वारा मेरी तरफ चेतावनी फ़ेंक कर मुझे सूचित किया गया कि मैं व्यंग्य लिखता हूँ। मतलब लिखने के नाम पर जो भी हरकते मैं करता हूँ उसे व्यंग्य कहाँ जा सकता है। इसके पूर्व मुझे यही लगता था कि मेरे लेखन का साहित्य से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। मैं पूरी तरह से उम्मीद का दामन और पायजामा छोड़ चुका था कि कभी साहित्य की कोई विधा मेरे लेखन को राजनैतिक या मानवीय आधार पर शरण देगी।
मित्रो के उकसाने पर मैं उनके कंधे पर पैर रखकर आसानी से चने के झाड़ पर चढ़ तो गया लेकिन उत्सुकतावश बार बार फोन और वाट्सएप पर उनकी कही गई बात को कन्फर्म करवाने लगा ताकि वो अपनी बात से भविष्य में मुकर ना जाए। लेकिन मित्रगण अपनी बात पर मँहगाई की तरह अड़े रहे और कहने लगे तुम्हारे में एक अच्छे व्यंग्यकार बनने के सारे लक्षण बरामद हुए है। यह सुनकर मुझे बाहर से तो गुदगुदी हुई लेकिन अंदर से भय ने कमान संभाल ली क्योंकि अगर इस बात का पता नामी व्यंग्यकारो को चल गया तो व्यंग्य की बदनामी करने के लिए कही वे मेरे खिलाफ मानहानि का मामला ना दर्ज़ करवा दे, मेरे व्यंग्यकार घोषित होने से बरसो से व्यंग्य तपस्या में लीन व्यंग्यकार कही साहित्याश्रम से फरार ना हो जाए।
मैं व्यंग्यकार की पदवी लेकर स्व-माल्यार्पण हेतु तैयार था लेकिन इतनी बड़ी बदनामी झेलने के लिए व्यंग्य साहित्य शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार नहीं दिख रहा था। वरिष्ठ व्यंग्यकारो को ज़ब मेरी इस सनक की भनक लगी तो वे साहित्यिक चिंता की गंभीर मुद्रा अपनी जेब से निकाल उसे चेहरे पर धारण कर पहली फुर्सत में दौड़े आए और मुझे समझाने की पूरी कोशिश करते हुए साहित्यिक सेलिब्रिटी की बॉडी-लेंग्वेज में कहने लगे की, "बेटा, मनमोहन सिंह लगातार बोलने और मोदी चुप रहने का विश्व रिकॉर्ड बना सकते है लेकिन तुम व्यंग्यकार बन सको ऐसी संभावना व्यक्त करना भी पहले से पीड़ित मानवता पर कुठाराघात करना होगा। दूरबीन से देखने पर भी तुम्हारे अंदर दूर दूर तक व्यंग्यकार के अवशेष तक नज़र नहीं आ रहे है। तुम लिखकर जितनी व्यंग्य साहित्य की सेवा करोगे उससे ज़्यादा सेवा तुम बिना लिखे अब तक करते आ रहे हो।"
"बिना लिखे तुम व्यंग्य साहित्य के चौकीदार और प्रधानसेवक बन सकते हो, अगर तुमने लिखना जारी रखा तो व्यंग्य के लिए "सुसाइड-बॉम्बर" सिद्ध होंगे।"..... वरिष्ठ व्यंग्यकारो ने टैलेंडर्स बैट्समैन द्वारा हार टालने जैसा अंतिम और मुश्किल प्रयास किया लेकिन मैं तो चने के झाड़ पर चढ़ा हुआ था इसीलिए वरिष्ठ व्यंग्यकारो की अमृतवाणी मेरे कान तक पहुँच कर मेरी शान में गुस्ताखी नहीं कर सकी। थक हार कर वरिष्ठो ने ज़्यादा भाव ना खाकर मुझ पर रहम खाने का फैसला लिया और मुझे अंततः " व्यंग्यं शरणं गच्छामि" का आशीर्वाद दे ही दिया। सभी वरिष्ठ व्यंग्यकारो में इस बात को लेकर सहमति बन गई की भले ही मेरे लिखे हुए से हास्य और व्यंग्य उपजे या ना उपजे लेकिन मेरे लिखे के साथ मेरी फ़ोटो देखकर ज़रूरत से ज़्यादा हास्य और व्यंग्य फूट पड़ेगा जो मेरे लेखन की व्यंग्यविहीनता को ढांप लेगा और इस तरह से मुझे व्यंग्य जगत में बिना आधार लिंक किए भावनात्मक आधार पर शरण मिल गई।
व्यंग्य दीक्षा देते समय वरिष्ठ व्यंग्यकारो ने मेरे कान में मंत्र फूंका और कहा, "अच्छा कवि बनने के लिए भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए लेकिन अच्छा व्यंग्यकार बनने के लिए संपादको पर टाइट पकड़ रखनी होती है। इतना ही नहीं एक अच्छा कवि बनने के लिए जीवन में प्रेम करने की आवश्यकता होती है जबकि एक अच्छा व्यंग्यकार बनने के लिए ईर्ष्या करने की।" दीक्षा में मिली यह शिक्षा मैंने आसानी से मन में गांठ की तरह बाँध ली क्योंकि इस हेतु आवश्यक दुराग्रह और पूर्वाग्रह प्रचुर मात्रा में और उचित दरो पर उपलब्ध था।
थोडा लिखकर पाठको पर बहुत ज़ुल्म ढाने के बाद मुझे अहसास हो चुका है कि मैं वीर रस का व्यंग्यकार हूँ क्योंकि मेरे लिखे हुए व्यंग्य को पढ़ना बहुत ही वीरता का काम है। मेरी ज़्यादा हैसियत नहीं वरना मैं सरकार पर दबाव डालकर मेरे सभी पाठको को परमवीर चक्र देने की वकालत करता। सरकार परमवीर चक्र दे या ना दे लेकिन मेरे जैसे युवा व्यंग्यकारो को प्रोत्साहन देने के लिए मेरे व्यंग्य लेख पढ़कर घायल होने वाले पीडितो को मुफ़्त इलाज़ और मुफ़्त दुर्घटना बीमा की सुविधा तो देनी ही चाहिए इससे ना केवल साहित्य को बढ़ावा मिलेगा बल्कि सामाजिक सुरक्षा का भाव प्रबल होने से लोगो में जोखिम लेने का साहस भी बढ़ेगा।