लोकतंत्र की कसम, नकली मावे पर रहम करो।

त्यौहारो पर विशेषकर दीपावली पर हर इंसान चाहता है की (बहुत) कुछ मीठा हो जाए। मीठे के लिए इंसान अक्सर एकांत में मिठाइयो पर धावा बोलता है। मिठाइयो में सोहन पपड़ी की हैसियत शरणार्थी की तरह होती है जिन्हें कोई स्थाई रूप से बसाना नहीं चाहता। सोहन पपड़ी के पैकेट्स अपना जीवनकाल एक अतिथि से दूसरे अतिथि के यहाँ घुमक्कडी में बिताकर अंत में गुमनामी दम तोड़ देते है। डॉयफ्रूटस आम आदमी की जेब से अभी उतने ही किलोमीटर दूर है जितने किलोमीटर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों से दाऊद इब्राहिम दूर है। ऐसे में मावे की मिठाईया नेताओ के चुनावी वादों की तरह हर वर्ग को लुभाती है। मावे की मिठाइयां हर सीजन में बिना विचलित हुए प्रचलित होती है। नेताओ के चुनावी वादों की तरह मावे में भी आकर्षक बनावट के साथ भयंकर मिलावट होती है। चुनावी वादे हो या मावे की मिठाई, आम आदमी दोनों ही चटखारे लेकर ग्रहण करता है और बाद में बिना किसी बीमा के देश और स्वयं के स्वास्थ्य का कीमा बनाता है।

पिछले कुछ समय से दीपावली पर नकली मावे को लेकर सजगता और आक्रोश महामारी की तरह फैला है। छोटा मुँह-छोटी बात लेकिन कहना होगा कि अब दीपावली केवल असत्य पर सत्य की विजय का पर्व नहीं है बल्कि यह नकली मावे पर असली मावे की विजय का भी पर्व है क्योंकि जिस तरीके से मीडिया के "माईक-बाँकुरे" शुद्ध मावे के लिए युद्ध लड़ते है उससे लगता है कि नकली मावे का दहन बुराई रूपी रावण के दहन जितना ही ज़रूरी है। नकली मावे के खिलाफ मुहिम गिरते स्वास्थ्य और गिरती टीआरपी दोनों के लिए संजीवनी का काम करती है। दीपावली और अन्य त्यौहार आते ही मीडिया को बिना किसी प्रशासनिक दबाव के ही जनता के स्वास्थ्य की चिंता सताने लगती है जो कि स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है क्योंकि अगर दर्शक त्यौहार के दौरान हेल्थी नहीं रहेंगे तो वे टीवी चैनल पर अवतरित होने वाले विविध विज्ञापनों के दर्शन कर अलग-अलग ऑफर्स की गिरफ्त में आकर "वेल्थी" कैसे बनेंगे।

हाथ में माइक और दिमाग में एजेंडा लिए मीडियाकर्मी भले ही जनकल्याण हेतु कानून हाथ में ले सकते है लेकिन जनता में हाईजिनिक जागरूकता जगाने के लिए वे कभी नकली मावे को हाथ में नहीं लेते और बिना मावे की "बाईट" लिए ही अपने स्टूडियो में "बाईट" दे देते है।

जिस तरीके से दीपावली पर दीप जलाना शुभ माना जाता है उसी तरीके से नकली मावे की बिक्री और उसके ज़ब्त होने की खबर टीवी पर देखना और अखबारो में पढ़ना लाभ-शुभ की बोहनी का संकेत होता है क्योंकि जब मीडिया, बाजार में नकली मावे की खबरे चलाता है तब जाकर आमजन को विश्वास होता है कि बाज़ार और मीडिया दोनों दीपावली पर अपनी तैयारीयो को लेकर गंभीर है। मीडिया हमें यह "जीएसटी मुक्त भरोसा"दिलाता है कि दीपावली पर आतंकी हमले से ज़्यादा नकली मावे से सुरक्षा की ज़रूरत है। सारी मिठाई की दुकानो पर दुश्मन के बंकर की तरह नज़र रखी जाती है और मच्छरों की तरह, छापे मारे जाते है। रसद विभाग जगह जगह सर्जिकल स्ट्राइक कर नकली मावा और अपने हिस्से की लाइम लाइट ज़ब्त करता है और बिना माँगे इस सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत भी उपलब्ध कराता है। आम आदमी इसी उहापोह में जीता है कि दीपावली के शुभ अवसर पर जो मावा उसके पेट में बुलेट ट्रेन की गति से गया है उसके  दूरगामी परिणामों के लिए उसे राज्य सरकार को कोसना पड़ेगा या फिर केंद्र सरकार को।

सोचने वाली बात यह भी है ज़ब पिछले सत्तर सालो में नकली नेता मिलकर लोकतंत्र का भक्षण नहीं कर पाए और नकली नेताओ के बावजूद भी लोकतंत्र अपने आप को  स्वस्थ ,जीवित और फिट रखे हुए है तो फिर त्यौहार के दिनों में मिलने वाले नकली मावे पर इतनी चिल्लम पों क्यों? आम आदमी को अपने देश के लोकतंत्र से प्रेरणा लेनी चाहिए। क्या हमारा विशाल ह्रदय दयालु लोकतंत्र  नकली मावे को बाकि नक्कालों की तरह अपने अस्तित्व का अधिकार नहीं देगा?


तारीख: 16.10.2017                                    अमित शर्मा 









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