[यह कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है। इसमें दर्शाए गए व्यक्ति-विशेष, चरित्र और जगहों के नाम केवल एक सन्देश देने का माध्यम बने हैं। इनका वासत्विकता से कुछ लेना नहीं है।]
खरदा गाँव में भोर हो या सूरज डूब रहा हो दोनों ही वक़्त घोर अँधियारा फ़ैल जाता है। एक क्षण के लिए कुछ भी दिखाई नहीं देता। उस दिन भी वही आलम था जब अल्का शाम के वक़्त जल्दी-जल्दी काम करके शहर से लौट रही थी। बापू की सख्त हिदायत थी कि वो एक घर काम करके शाम को दुसरे घर भी काम करेगी। अपने घर का खर्चा चलाने के लिए अल्का, उसकी माँ, बड़ी दीदी दुसरे के घरों में काम करते थे और बापू खेती कर के अनाज ले आता था। इसके अलावा एक भाई भी था जो अभी छठी कक्षा में पढ़ता था।
अल्का जल्दी-जल्दी अपने पाँव बढ़ा कर चल रही थी। आज आने में देरी हो गयी थी पर फिर भी उसने सोचा कि बापू अगर गुस्सा भी करेंगे तो वो मना लेगी। तभी सामने गाँव के कुछ लड़के बैठे हुए दिखाई दिए। अल्का ने उनकी तरफ देख कर भी अनदेखा कर दिया। वो चुपचाप आगे बढ़ती रही। लड़कों के बीच में सुगन बैठा था। वो खुदको इस गाँव के सारे लड़कों का सरदार मानता था और माने भी क्यों ना उसके घर में दादा परदादा की दौलत थी, पिता को गाँव के मुंसीपल काउंसिल में नौकरी थी और जीजा इस क्षेत्र के विधायक थे, पर वो था एक नंबर का लफंगा।
उसने अल्का को आता देख जोर से सीटी मारी। अल्का ने फिर नज़रंदाज़ किया। फिर उनमें से किसी एक ने कहा, "सुना है अगर बदन गदराया हो तो चाल धीमी हो जाती है, पर ये तो भागी ही जा रही है।" सुगन ने जवाब में कहा, "कोई बात नहीं हम रोक लेंगे" इतना कहना ही था कि उसने दौड़ कर अल्का का रास्ता रोक लिया। अल्का को डर भी लगा और गुस्सा भी आया। पर लड़के थे ढेर सारे और शाम का वक़्त। अल्का ने धीमे से पूछा, "क्या हुआ? मुझे जाने दो।"
"कहाँ जाने जी जल्दी है? हम ले चलेंगे तुझे। तू एक बार गाड़ी में बैठ तो जा तुझे जहाँ जाना है हम छोड़ देंगे।"
"बदतमीज़ी मत कर वरना मार-मार के सारे दांत बाहर कर दूंगी। अगर तुम सबके बारे में अपने बापू को बताया तो हड्डियाँ सलामत नहीं रहेंगी तुम्हारी।" अल्का ने धमकाते हुए कहा।
पर लड़कों के कानो ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं। इससे पहले वो कुछ बोल या सोच पाती। किसी एक ने आकर उसको धर दबोचा, किसी दूसरे ने उसकी बांह पकड़ ली और किसी ने उसको बालों से पकड़ कर नीचे गिरा दिया। चिल्लाने के लिए मुँह खोल पाती उससे पहले ही किसी ने मुँह में कपड़ा ठूंस दिया। उस आखरी वक़्त में अगर कुछ निकला तो बस आँखों से आंसू। हाँथ पैर मार के छुड़ाने की कोशिश करती रही पर जब तीन चार लोग आपके हाँथ पैर जकड़ लेते हैं तो आप समझ सकते हैं कितनी मुश्किल होती होगी उसे छुड़ाने में।
पर ज़रूरी नहीं कि जब स्थिति बुरी हो तो बुरा हो ही जाये। एक वक़्त ऐसा भी था जब द्रौपदी को कृष्णा ने बचाया था। शाम के समय असगर कसाई जब अपने बकरे को काट कर वापस आ रहा था तो उसने अल्का को इस हालत में पाया।
बिना कुछ सोचे समझे उसने अपनी आरी निकाली और लड़कों पे कूद पड़ा। सारे लड़के एक ही वार में तित्तर बित्तर हो गए। ठीक से दिखा तो नहीं पर असगर ने किसी एक को अच्छी तरह धोया और बाकी अपने आप डर के मारे भाग खड़े हुए। असगर ने कहा, "डरना नहीं बहन मैं यहाँ हुं।"
असगर अल्का को सही सलामत घर ले आया था। घर पहुँचने के बाद अल्का डर से कांप रही थी। माँ ने उसे घर के अन्दर लिया और चारपाई पे बिठाया। बड़ी दीदी ने पानी दिया और वो हिचकियों के साथ पानी पीने लगी। तब तक बापू ने असगर से सारा हाल ले लिया था। अल्का के पानी का गिलास नीचे रखने से पहले ही असगर को धन्यवाद कहके बापू ने रवाना कर दिया था।
घर के अंदर दाखिल होते ही बापू चीख कर बोले, "छिनार तुझे वहां जाने की ज़रूरत ही क्या थी?"
"क्या बोल रहे हो बापू मैं तो काम से लौट रही थी। वो तो उन लोगों ने मेरे साथ बदतमीज़ी की।" अल्का ने जवाब दिया।
"नहीं ऐसा हो ही नहीं सकता। कोई भी लड़का कभी भी ऐसा नहीं करेगा जब तक कोई लड़की उसे उकसाएगी नहीं। ज़रूर तूने ही कुछ किया होगा।"
"नहीं बापू मैंने कुछ नहीं किया। आप असगर भैया से पूछ सकते हो?" अल्का ने अपनी सफाई में कहा।
"एक तो तूने मेरी नाक कटा दी और ऊपर से उस मुसलमान को भाई कह रही है। तुझे धर्म या जात का भी कोई लिहाज़ रहा की नहीं?"
"उन्होंने मुझे बचाया है बापू, थोड़ी तो इज्ज़त दो उन्हें।" मानो ऐसा बोल के अल्का ने किसी बिजली के अनछुए तार को छु लिया हो, माँ ने इतनी ज़ोर का चाटा मारा की बदन के सारे सुर हिल गए। "बेशरमी तू उसकी तरफदारी कर रही है। तुझे उस कसाई ने उसी हाथ से छुआ जिससे वो बकरे काटता है तब तुझे शर्म नहीं आई? तू किसी काम की तो है नहीं हमारी जान अलग से खा रही है। रुक आज तो तू गयी।" कहकर माँ ने दरवाज़े से टिकी झाडू उठाई और तीन चार बिना किसी सोच के अल्का को जड़ दिए। अल्का ने चिल्ला के कहा, "बापू-बापू" पर बापू ने उलटे चाटा लगाया। आधे घंटे तक अच्छी तरह पीटने के बाद माँ ने कहा, "आज से घर से बाहर गयी तो इससे भी बुरा हाल होगा समझ लेना।"
खाना पीना तो दूर अल्का वहीँ बैठे रोते रही। बगल में छोटा भाई चन्द्रप्रकाश जिसे प्यार से सब लड्डू बुलाते थे चुपचाप खड़ा हुआ था। उसे कुछ समझ में नहीं आया कि माँ-बापू ने दीदी को क्यों मारा। पुरे झगड़े के दौरान वो दिवार से लग कर खड़ा था। उसे ऐसा लगा जितना शोर-शराबा हो रहा है सब उसी की वजह से है। अगर वो चुप हो जाए तो शायद सब कुछ शांत हो जाए। पर उसे नहीं पता था कि सब कुछ शांत तब तक नहीं होगा जब तक माँ बापू अपने दिनभर की खीज और गुस्सा दीदी पर नहीं उतार देते।
उसने आगे बढ़कर अल्का को चुप कराने की कोशिश की। पर अल्का की आँखों से आंसू के धार बहे ही जा रहे थी। लड्डू ने कहा, "दीदी देख ना मेरी बिल्ली खो गयी है अगर तू हँसेंगी तो शायद घर वापस आ जाए। तू हंस दे न दीदी।" पर अल्का अपना मुंह हांथो के बीच छुपा के रोती रही।
लड्डू ने फिर कोशिश की, “दीदी जानती है आज स्कूल में मास्टरजी जी ने सबको कहा की जो जो कल से जूते पहन के नहीं आएगा वो उल्लू और उसका दोस्त उल्लू का दोस्त। तभी मैंने ज़ोर से पूछा, "और उसका मास्टर क्या हुआ मास्टरजी? उल्लू का मास्टर?" जानती है सब हंस पड़े चल अब तू भी हंस दे न।” पर अल्का फिर भी अपना मुंह अपने हांथो के बीच छुपा के रोती रही।
थोड़ी देर बाद जब लडडू हार गया तो उदास हो कर अपनी खटाई पे बैठ गया। उसने अपना बस्ता खोला और अपनी किताब खोलकर पढ़ने लगा। आज स्कूल में उसे भारत की प्रस्तावाना के बारे में बताया गया था। उसे मास्टर जी ने साफ़ कहा था, "कल सब लोग प्रस्तावना मुह्जबानी याद कर के आयेंगे।” उसने जोर-जोर से प्रस्तावना पढ़ना शुरू किया।
“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभूत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकातान्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामजिक, आर्थिक और राजनतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढसंकल्प होकर अपनी इसा संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुक्लासप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इसा संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं|”
जोर-जोर से इसी को दोहराने लगा। बार बार पढ़ते रहा और शायद याद भी कर लिया।
खरदा गाँव में टीवी नहीं होने के कारण यहाँ की औरतों के पास एक दुसरे के बारे में बात करने के आलवा कोई और टाइम पास नहीं था। अगले दिन जब अल्का काम पर गई तो उसने कुछ ऐसा सुना
"जानती हो कल रात को लड़कों ने इसे बीच रास्ते पकड़ लिया था। कौन जाने क्या-क्या हुआ होगा?"
"अरे वो छोड़ो उससे पहले क्या क्या हुआ होगा वो कौन जाने? भाई हम सबने भी दुनिया देखी है। कभी देखा कोई लड़का किसी लड़की को राह चलते छेड़ दे, बिना किसी इशारे के थोड़ी कोई हिम्मत करता है।"
"सोचने की बात तो ये है कि लड़के तो ऐसा करेंगे ही इसमें उनकी क्या गलती। वो तो लड़की को समझ होनी चाहिए ना कि जब घर से निकल रहे हैं तो दुपट्टा डाल कर चलें, ज़रा कपड़े ढंग के पहने। किसी लड़के से ना उलझे।"
"हद तो तब हो गयी जब उस कसाई असगर ने इसे लडकों से बचाया। क्या कोई फिल्म है जो हीरो की तरह बचा लिया? हमे नहीं पता क्या मुसलमानों की चार बीवियाँ होती हैं। एक घर में बाकी घर के बाहर।"
"देखो-देखो कैसे चल रही है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। न शर्म न हया। छोड़ो जाने दो जी। हमे तो इसके बारे में बात भी करने में शर्म आ रही है।”
सुनते हुए जब अल्का घर पहुंची तो माँ ने पूछा, "क्या हुआ? वापस क्यों आ गयी?"
"कुछ नहीं मेमसाहब ने कहा कल से काम पर आने की ज़रूरत नहीं।"
"क्यों?"
"पता नहीं पर उन्होंने बस कहा, “बेटी हमारे घर में भी मर्द हैं कोई पति है, कोई भाई है, कोई बेटा है और हमारा घर शरीफों का है इसलिए कल से तुम काम पर मत आना।”"
बोलते हुए अल्का चुपचाप अन्दर चली गयी। माँ ने दबे स्वर में कहा, “काश ये लड़का होती।”
एक हफ्ते बीत गए और लोगों का ध्यान अल्का से हट कर गाँव में बढती गर्मी, बिमारी, शहर में लगी नयी फिल्म की तरफ चला गया। एक दिन हर रोज़ शाम की तरह जब अल्का के बापू घर की तरफ आ रहे थे, सुगन और उसके दोस्त फिर से उसी तरह वहीँ मंदिर के पास बैठे थे। उसी तरह बकवास और सुगन की चापलूसी करके अपना वक़्त ज़ाया कर रहे थे। उनमे से एक ने कहा, "अबे मेरा बाप मेरी जेब से चवन्नी भी निकाल लेता है। एक-एक पैसे का हिसाब लेता है और पढ़ाई नहीं करने वाले तो उसकी नज़र में पापी हैं।"
"रोता क्यों रहता है बे कौन से बाप ने किसी बेटे का भला किया है। तू साफ़-साफ़ बोल आज का प्रोग्राम तू देख पाएगा या नहीं?"
"नहीं। आज नहीं हो पायेगा। फिर से आज पैसे की तंगी है।" सुगन उठा और बोला, "अबे तंगी कैसी वो सामने कोई घनशयाम जा रहा है। किसी न किसी का बाप ही होगा सब लोग अपने-अपने बापों से बदला ले लो, मैं कुछ पैसे कमा लूँगा।"
दिनायकलाल जब घर पहुंचे तो सर पे चोट लगी थी, कपड़े कीचड़ से सने हुए थे और चेहरे पर बदहवासी छाई थी। दरवाज़ा खोलते ही अन्दर घुस पड़े और गुस्से में चिलाने लगे, "सबकी जान ले लूँगा। किसी को नहीं छोडूंगा।"
माँ ने सिर पोछ्ते हुए कहा, "क्या हुआ जी कहाँ से आ रहे हो?"
"वो हरामजादे गाँव के लड़के। किसी की इज्ज़त नहीं समझते। मुझे आते हुए लूट लिया। कितनी हांथापाई हुई तब भी थे की साले हिलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। पैसे तो गए पर किसी तरह अपनी जान बचा के आया हूँ।"
"मिट्टी डालो करमज़लो पर जी, लो पानी पी लो।"
दिनायकलाल चारपाई पर बैठे तब तक अल्का पानी ले के आ गई थी।
"आपको वहां जाना ही नहीं चाहिए था बापू।" अल्का ने तीखी आवाज़ में हाँथ में पानी का गिलास पकड़े हुए कहा। बापू समझ गए उसका मतलब। सब चुप रहे जब तक अल्का ने खुद नहीं कहा, "पानी पी लो बापू" कहकर पानी का गिलास सामने रख दिया। बापू ने आगे कहा,"पर मैंने भी हार नहीं मानी, कुछ नहीं तो एक-आद को तो अच्छी तरह धोया है। साले अगले जन्म तक याद रखेंगे।
अल्का ने इस बार खाना परोसते हुए कहा, "लेकिन कोई भी लड़का ऐसा क्यों करेगा जब तक कोई उसे उकसाएगा नहीं। ज़रूर बापू तुमने ही कुछ किया होगा।" अल्का की इस बात का जवाब दिए बिना रहा नहीं जा सकता था। सबकी ज़बान तो चुप ही रही पर माँ ने हांथो से जवाब अच्छा दिया। एक जोर का तमाचा अल्का के गाल पे जड़ा और बोली, "चुप कर बहुत बोल रही है तू आज।"
आमतौर पर ऐसा तमाचा लगने पर अल्का ज़मीन पर गिर जाती और रोते-रोते अपना खाना खाती। पर इस बार वो वहां से हिली भी नहीं चुपचाप वहीँ खड़ी रही। मानो उसे अब इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता, मानो ये अब रोज़ की बात हो, मानो उसके अन्दर सब कुछ ठंडा हो चुका हो, मानो उसने भी अब विरोध करना सीख लिया हो।
माँ ने चिल्ला कर कहा, "ऐ देखती क्या है चल जा यहाँ से। आँखे किसे दिखा रही है।" इतना कहकर उसने अपना दूसरा हाँथ उठाया।
शायद वो आज और भी चांटे खाती और शायद और भी बहुत कुछ होता पर उसी वक़्त पुलिस दरवाज़े को तोड़ कर अन्दर घुस गयी। बापू ने देखा दरवाज़े पे एक बड़े साहब (इंस्पेक्टर), पांच हवालदार और दुनिया भर की भीड़ खड़ी हुई थी।
बापू दौड़ के आगे बढे और पूछा, "अरे बड़े साहब आप यहाँ? कैसे आना हुआ? बोलिए क्या कर सकता हु?"
इंस्पेक्टर ने ऊँची आवाज़ में कहा "आप ही का नाम दिनायकलाल है। आपको हमारे साथ थाने चलना होगा।"
"क्यों साहब मैंने क्या किया है?"
"आज शाम को मंदिर के सामने कुछ लड़कों से मारामारी की है तुमने, एक को बुरी तरह से घायल किया जो हास्पिटल में है और बाकियों को भी मारने की धमकी दी है। उन लड़कों ने तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट लिखाई है। और तो और उनमे से एक तो हमारे विधायक साहब का साला है।"
"नहीं साहब ये सब झूठ है। उनलोगों ने मुझे लूटा मारा और मेरे पैसे भी छीन लिए। मैंने तो अपने बचाव के लिए उनको मारा।"
"वो सब थाने चल कर कहना।"
माँ और बापू दोनों ने बड़े साहब (इंस्पेक्टर) के हाँथ-पैर जोड़े पर बड़े साहब थे कि सुनने को तैयार ही नहीं थे। उन्होंने दिनायकलाल को हथकड़ी लगायी और लोगों की भीड़ को पार कर अपनी जीप में बैठ कर रवाना हो गए। माँ रोने लगी और सिसक-सिसक कर लोगों के सवालों के जवाब देने लगी। घर में चाहे कुछ भी हो घर के बाहरवालों को ये यकीन दिलाना ज़रूरी होता है कि घर में सब कुछ ठीक है।
अल्का चुपचाप वहीँ कोने में खड़ी रही। बिना कुछ कहे वो रसोईघर की तरफ बढ़ी और खाना निकाल कर खाने लगी। वैसे उसे दुख तो हुआ ही कि उसके बापू को पुलिस लेकर चली गयी। पर दूसरी ऒर न जाने क्यों हल्की सी ठंडक भी महसूस हुई। अपने पिता के गिरफ्तार होने पर एक बेटी का खुश होना नैतिक रूप से तो गलत लगता है। पर नैतिक-अनैतिक तो जीवन के सिर्फ पहलु मात्र हैं जिनमे इंसान को तौला जाता है और असली सच्चाई तो मन की संतुष्टि है। उसके मन को इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम आज तो किसी को अनुभव होगा कि गलती न हो फिर भी आपको दोषी ठहराया जाए तो कैसा लगता है। कैसा लगता है जब आपके साथ नाइंसाफी होती है। जैसा उस दिन अल्का के साथ हुआ था।
लड्डू हमेशा की तरह चुपचाप एक दीवार से लग कर खड़ा था। उसे तो इस बात की भी समझ नहीं थी कि हुआ क्या? उसे तो बस ये समझ में आया की कुछ वर्दी में लोग आये जो बापू को ले के चले गए। अब ये अच्छी बात है या बुरी उसे कुछ नहीं पता। उसने अपनी दीदी को देखा जो चुपचाप खाना खाए जा रही थी। उसकी कुछ नहीं सुझा तो उसने अपना बस्ता खोला और जोर-जोर से पढ़ना शुरू किया।
“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभूत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकातान्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामजिक, आर्थिक और राजनतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढसंकल्प होकर अपनी इसा संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुक्लासप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इसा संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं|”
अल्का ने बीच में रोककर पूछा, "ये तू क्या पढ़ता रहता है हर रोज़?"
"दीदी स्कूल में मास्टर जी ने याद करने को दिया है। भारत की प्रस्तावना।"
"इसका मतलब?"
"मतलब ये है दीदी कि भारत के लोग ये प्रतिज्ञा करते हैं कि भारत को एक सम्पुर्ण, समृद्ध और सफल राष्ट्र बनाने के लिए हम जैसे भी हो प्रयास करेंगे।"
अल्का अनपढ़ थी बचपन में माँ-बाप ने उसकी पढ़ाई के पैसों से ट्रेक्टर खरीद लिया था। इसलिए उसे लड्डू की किताबी बातें समझ में नहीं आती थी। उसने फिर पूछा, "ये भारत के लोग भारत के लिए क्या-क्या करते हैं?"
"भारत में लोग एक दुसरे से धर्म, जाती, लिंग, रंग, काम या किसी और चीज़ से कोई भेदभाव नहीं रखते हैं। सबको समान अधिकार मिलते हैं, कोई छुआछूत में नहीं मानता। लोगों के बीच प्यार और सद्भावना होती है। कोई भी अन्याय या जुर्म होने पर सख्त से सख्त कानून हैं जो सब पर समान रूप से लागु होते हैं। सभी को देश में किसी भी तरह के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और नैतिक विचार धारण या वयक्त करने पूरा अधिकार है। शिक्षा, आर्थिक उन्नति, व्यवसाय और सरकारी सुविधाओं पर सभी को एक समान अवसर प्राप्त हैं। भारत एक महान देश है।"
इतना सब सुनने के बाद अल्का हैरानी से लड्डू की तरफ देखकर कहती है, "अगर भारत इतना अच्छा है और वहां के लोग इतने अच्छे हैं तो बस एक सवाल का जवाब और दे लड्डू। ये भारत हैं कहाँ? बता दे मैं वहीँ चली जाउंगी।"
लड्डू इतना सुनते ही खिलखिला के हंस पड़ा। उस अनजान बच्चे को नहीं पता था की वो पुरे भारत के संविधान पे हंस रहा है।
[अब बस एक मिनट अपने जीवन के उस समय के बारे में सोचिये जब आपको भारत के बारे में स्कूल में पढ़ाया गया था। क्या जो भी हमे बताया गया वो सब सच है? क्या अल्का का सवाल किसी भी तौर से गलत था? क्या ये वाकई भारत है?]