लाली

आज मुन्नी ने खाना नहीं खाया। रो-रोकर घर भर दिया। रोती भी क्यों नहीं, इतने प्यार से जो पाला था उसने लाली को और आज न जाने कौन से जन्म का बदला लेकर हमेशा-हमेशा के लिए साथ छोड़ गई वह। पूरे घर में श्मशान जैसी उदासी छायी थी। मुन्नी की अम्मा, बापू, छोटा भाई सभी लाली के चले जाने पर बहुत दुखी थे। लेकिन मुन्नी की तो जान ही निकल गयी थी जैसे। कई बार रोते-रोते बेहोश हो गई चुकी थी। होश में आते ही लाली-लाली कहकर रोने लगती। 

उसे याद है जब से लाली ने घर में पाँव रखा, सबके दिन फिर गये थे। बापू का काम भी खूब चलने लगा था। छोटू के जिगर की बीमारी जाती रही। अम्मा भी अब बार-बार नहीं खाँसती थीं। और मुन्नी, मुन्नी को तो लाली क्या मिली छोटी बहन मिल गई थी। हर समय उसे साथ लिए घूमती। साथ खिलाती, साथ सुलाती यहाँ तक कि अपने साथ ही नहलाती भी थी। जब से लाली ने बिस्तर पकड़ा, एक रात चैन से नहीं सोई मुन्नी। और आज सुबह जब लाली ने सदा के लिए इस संसार से विदा ली तो मुन्नी रोते-रोते बेहाल हुए जा रही है। रोते-रोते वह उस दिन को याद करने लगती है जब अम्मा और बापू शहर से लाली को लाये थे। दरवाज़े पर आते ही बापू ने पुकारा था, “मुन्नी...ओ मुनिया...देख तो...”

बापू की आवाज़ सुनते ही वह चहक उठी और दौड़कर दरवाज़े पर पहुँच गयी थी। “ले देख...अपनी अम्मा की गोद में देख...।” मुन्नी ने अम्मा की गोद में देखा और चहक कर बोली, “ले आए मेरी बहन। क्यों अम्मा देखूँ तो...” और झट से मुन्नी ने लाली को गोद में ले लिया, पीछे से अम्मा बोलीं थीं, “अरे...सँभल कर...कहीं गिर न जाए।” “हाँ-हाँ ऐसे ही गिरा दूँगी इसे। अरे! यह तो मेरी छोटी बहन है। इसे तो मैं अपने साथ ही रखूँगी”, कहते हुए वह लाली को प्यार करने लगी। 

बस उसी दिन से मुन्नी और लाली साथ-साथ रहने लगीं। लाली की पूरी ज़िम्मेदारी आठ वर्ष की मुन्नी ने सँभाली। उसके खाने-पीने का ध्यान एक माँ की तरह रखती। बात-बात में लाली को गोद में उठा लेती। उधर लाली भी बिना मुन्नी के एक पल न रह पाती। मुन्नी के उससे दूर जाते ही छटपटाने लगती। आँखें मटकाकर इधर-उधर देखने लगती कि मुन्नी कहाँ चली गयी। मुन्नी थोड़ी-सी भी देर के लिए अगर लाली से दूर हो जाती तो दोनों को ही चैन नहीं पड़ता था। लाली का तो मानों दम घुटा जाता, रह-रहकर अजीब-अजीब आवाज़ें उसके गले से निकलने लगतीं। उसकी आवाज़ों को सुनकर मुन्नी दौड़कर उसके पास आती और झट से उसे गोद में उठाकर उसका गाल और माथा चूमने लगती, “मेरी छोटी सी गुड़िया है। मेरी बहन है। मेरी कुची-कुची है,” और भी न जाने कौन-कौन से विशेषण वह लाली के नाम के साथ लगाती।

उसे याद आ रहा है वह खेत में बापू को रोटी देने जाती तो लाली को अपने साथ ही ले जाती। लाली उसे क्या मिली, उसे तो अपने खाने-पीने, सोने-जागने की फिक्र ही न रही। यहाँ तक कि वह अपने पुराने गुड्डे-गुड़िया के खेल को भी भूल गई थी। उसे कुछ याद था तो बस लाली और उसकी देखभाल। खाना खाने बैठती तो एक निवाला लाली के मुँह में और दूसरा अपने मुँह में डालती। सच दोनों को देखकर हर कोई यही कहता कि दो जिस्म और एक जान हैं दोनों। गाँव की औरतें दोनों को साथ देखकर मज़ाक में कहतीं, “अरे ओ मुनिया! इस लाली को भी अपने साथ ले जइए अपनी ससुराल...” यह सुनकर मुन्नी ‘धत्त’ कहती और लाली को चिपकाए वहाँ से भाग जाती। 

वह रोकर चुपी भी न थी कि उसके बापू लाली का क्रियाकर्म करके लौट आये। रोते-रोते वह बापू के पास आ गई और उनसे लिपट कर रोने लगी। 

“बस मुनिया बस...ज्यादा नहीं रोते बच्ची...तबियत खराब हो जाएगी,” बापू ने कहा। 

मुन्नी ने रोते-रोते पूछा, “बताओ न बापू कहाँ छोड़ आए मेरी लाली को?” 

“अब क्या बताएँ मुनिया? मिट्टी में दबा दिया।” कहते हुए बापू की आँखें भी भर आईं। 

उनको रोता देख अम्मा भी रो पड़ीं और अम्मा ऐसी रोईं कि आस-पड़ोस की औरतें भी रोते हुए आ गईं और अम्मा के रोने के स्वर में स्वर मिलाने लगीं, “हाय...मेरी...ललिया...कहाँ चली गयी रे...।” जैसे किसी गीत की पंक्ति गा रही हों। यह मातम चल ही रहा था कि मुन्नी के चाचा-चाची पहुँच गये। वे शहर में रहते थे। मुन्नी उनको देखकर जोर-जोर से रोने लगी। घर में मातमी माहौल देखकर वे सकपका गये और मुन्नी के बापू से पूछने लगे कि तभी मुन्नी चहक उठी, “अरे देखो डलिया में लाली है।” उसे अपनी चाची के हाथ से डलिया ले ली और पागलों की तरह डलिया खोलने लगी, “कहाँ चली गयी थी मेरी लाली?” 

सबकी दृष्टि उस उस ओर उठ गयी। सब समझने लगे कि मुन्नी बावली हो गयी है। लेकिन अगले ही पल शोकपूर्ण वातावरण उल्लास में बदल गया और रोने वाली आस-पड़ोस की औरतें हँसते हुए अपन-अपने घर की ओर चली गयीं। दरअसल लाली के क्रियाकर्म से लौटते समय मुन्नी की दशा देखकर बापू ने शहर में मुन्नी के चाचा को फोन कर दिया था और अपने घर से एक और बकरी का बच्चा जल्द-से-जल्द लाने की खबर कर दी थी जिसे लेकर मुन्नी के चाचा-चाची पहुँच चुके थे। मुन्नी भी इस बकरी के नए बच्चे को पाकर फूली नहीं समा रही थी, बार-बार उसे अपनी पुरानी फ्राक पहनाने की कोशिश कर रही थी। साथ-ही-साथ कहती जा रही थी, “बिल्कुल मेरी लाली जैसी है, इसका भी नाम मैं लाली ही रखूँगी।“                 


तारीख: 09.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है


नीचे पढ़िए इस केटेगरी की और रचनायें