“मैं पूरा सच नहीं देख पाता, पूरा सच देख ही कौन सकता है। देवता भी नहीं। ब्रम्हा की हज़ार आख्ने, इंद्र की एक सौ और मेरी तो सिर्फ दो। सच आपका और मेरा हो सकता है इसलिए सच जानने से भी अधिक ज़रूरी है अपने मन की आवाज़ सुनना। - देवदत्त पटनायक”
शाम का वक़्त अभी तक हुआ नहीं था और हम अब तक आश्रम में पहुँच चुके थे। receptionist अपने हाँथ जल्दी जल्दी कीबोर्ड पर चला रही थी। फिर कुछ देर के बाद वो रुक कर मेरी और मेरे पिता (जो टेबल के दूसरी तरफ बैठे थे) उनकी ओर देखकर बोली, "क्या आप चाय या कॉफ़ी कुछ लेंगे?"
मैंने और पिता दोनों ने कहा, "नहीं, जी नहीं, सब कुछ ठीक है, हमे कुछ नहीं चाहिए।"
"तो कहिए मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?"
मैंने बोलना शुरू किया, "हम यहाँ पर मेरे पिता का दाखिला कराने आएं है, इन्हे इस आश्रम में डालना है।"
"ठीक है डाल सकते हैं, ये शहर का सबसे अच्छा वृद्धाश्रम है। यहाँ रहने वाले बूढ़ों की उम्र आमतौर पर कुछ 45 होती है कई लोग उससे भी ऊपर होते है। यहाँ रह कर लोग अच्छे खासे दोस्त भी बन जाते हैं और पास में ही अच्छा चर्च भी है। वहां के father ही यहाँ रहने वाले बुज़ुर्गों की देखभाल करते हैं। रहने की सभी facility आपके कहे अनुसार ही होंगी।"
"क्या facility हैं रूम की?"
"रूम AC/ नॉन-AC दोनों है, साफ़ सफाई के लिए बाई है जो दिन में कम से कम दो बार झाड़ू-पोछा कर जाती है। खाने में veg/ नॉन-veg दोनों मिलेगा आपको जो चाहिए उस हिसाब से पैसे लगेंगे।"
मेरा ध्यान घर में इतने दिनों से हो रही किच-किच पे गया। श्रुति न जाने कब से मेरे पिता से परेशान है। मैं भी अब रह रह के उनके द्वारा की गई हर एक दखलंदाज़ी से तंग आ गया हूँ। न जाने कहाँ कहाँ की बातें उठा लेंगे और मुझसे बोलने लग जायेंगे। कभी पड़ोस वालों की बुराई करेंगे कभी मुझे गावँ की कहानियाँ सुनाएंगे जिसमें मुझे तनिक भी दिलचस्पी नहीँ। बूढ़े होने पर अक्सर ऐसा होता है, लेकिन वो मेरा वक़्त लेने लग जाते है। और तो और अपनी सेहत का भी कोई ख्याल नहीं कभी पार्क में घुमने नहीं जाते, कोई भी मसालेदार चीज़ देखते ही टूट पड़ते हैं, सुगर बीपी ना जाने कितनी बीमारियाँ हैं फिर भी अपने आप पे कोई कण्ट्रोल नहीं मैं कब तक इनको संभाल सकूँगा। अपना काम देखूं या इनको।
मैं मन ही मन सोच रहा था इतने दिन हो गए पिताजी को वृद्धाश्रम में डालने के लिए सोच रहा था अब आ गया हूँ तो खर्चे के बारे में नहीं सोचूंगा। इतने दिन से घर में रहकर मुझे और श्रुति दोनों को परेशान कर दिया है। आज ये बला टल ही जाए तो अच्छा रहेगा।
मैंने कहा, "ठीक है, पैसों की चिंता आप मत करीए।"
"तो फॉर्म भरना शुरू करें?"
"हाँ"
Receptionist मुड़ कर दोबारा अपने कंप्यूटर पर देखने लगी और कीबोर्ड पर हाँथ चलाना शुरू किया।
"नाम?"
"नीरज कुमार"
"उम्र?"
"55 साल"
"पता?"
"9-शालिग्राम, चर्च गेट, ब्रिगेड रोड, बैंगलोर"
"क्या रूम में टीवी चाहिए?"
इस पुरे दौरान मेरे पिता बस चुपचाप बैठे हुए थे। कुर्सी जिस पर वो बैठे थे वो उसमे भी मानो दब से गए थे। कुछ ख़ास उनके पास कहने को नहीं था। इस बार मेरी ओर देखते हुए बोले, "बेटा वैसे भी आजकल के ज़माने में जो कार्यक्रम आते हैं मेरी समझ में नहीं आते मैं टीवी का क्या करूँगा? मुझे नहीं चाहिए।"
"नहीं पापा अकेले रहेंगे तो बोर हो जाएंगे टीवी रहने दीजिये।" मैंने receptionist की ओर देख के बोला, "हाँ टीवी चाहिए।"
"ओके" कहकर उसने तेज़ी से कीबोर्ड पर अपना हाँथ चलाया।
"रूम AC होगा या नॉन-AC?"
मैंने हिचकिचाते हुए पूछा, "क्या अंतर पड़ेगा महीने के किराए में?"
"AC पंद्रह हज़ार नॉन-AC दस हज़ार।"
“अगर अंतर सिर्फ पांच हज़ार का है तो कोई बात नहीं। AC रहने दो।”
पिताजी फिर बोले, “अरे नहीं नहीं बेटा मुझे AC क्या करना? मुझे ऐसी कोई आदत भी नहीं, बेकार का खर्चा क्यों करना?”
“नहीं पापा सर्दी के दिन तो फिर भी निकल जायेंगे गर्मी में आपको तकलीफ होगी। रहने देते हैं?” receptionist को देख कर मैंने बोला, “AC रहने दीजिए”
“ओके सर”
“Veg या non-Veg?”
“सिर्फ Veg पिताजी non-veg नहीं खाते।”
“ठीक है” कहकर receptionist ने फिर से कीबोर्ड पर अपना हाँथ चलाया और फिर कहा, “अभी महीने का किराया 25000 हो रहा है, आप चांहे तो चेक या कैश से पे कर सकते हैं।” “ठीक है मैं चेक दे देता हूँ।”
कुछ ही देर में मैंने 25000 का चेक काट कर receptionist को दे दिया। उसके बाद मैं और पिताजी रूम देखकर आश्रम से बाहर आ गए। मैंने पिताजी से कहा, “आप अन्दर ही रुकिए मैं कार से सामान लेकर आता हूँ।” उसके बाद मैं बाहर आ गया।
मैं कार से सामान निकाल ही रहा था कि मेरे मोबाइल पे एक कॉल आया। श्रुति का नंबर था। फ़ोन उठाते ही उसने पूछा, “सब हो गया?”
मैंने कहा, “हाँ सारी formalities तो हो गई, बस अब सामान लेकर रूम तक पहुँचाना है।”
“रूम ठीक है?”
“हाँ ठीक है, सारी facilities है, AC, TV veg खाना सब है।”
“अच्छा तब तो ठीक है, और हाँ क्या ये साल में दिवाली, संक्रांति, दशहरा के लिए घर आएंगे?”
“हाँ हो सकता है आएं। क्यों?”
“नहीं हम लोग तो सभी त्योहार मनाते हैं। मिठाई वैगराह बनायेंगे उनको शुगर की बिमारी है, घर में रहे भी तो बार बार उनपर नज़र रखनी पड़ेगी। कुछ उल्टा सुलटा खा लिया तो बस डॉक्टर के पास ले जाओ और दवाइयाँ कराओ वैगाराह दस परेशानियाँ। और वैसे भी घर तो इतना दूर है क्यों आने जाने का इतना तकलीफ उठाना। वहीँ उनको काफ़ी दोस्त मिल जायेंगे। उन्हें वहीँ रहने के लिए बोलना।” “ठीक है मैं देखता हूँ, अभी फ़ोन रखो।” इतने में मैंने देखा पिताजी आश्रम के गेट के पास आ गए थे। वहीँ बगल के चर्च के father भी आ खड़े हुए। पिताजी ने उन्हें देखते ही नमस्ते किया और मुस्कुरा के आगे बढ़े उनसे हाँथ मिलाने के लिए।
मैंने श्रुति को एक और मर्तबा फ़ोन रखने के लिए कहा। फ़ोन रखने से पहले उसने एक बार फिर कहा, “अरे आने से पहले डॉक्टर का नंबर दे के आना। कभी कुछ भी हो तो वो खुद ही फ़ोन कर लेंगे, हमें disturb न करें।”
“अच्छा ठीक है तुम फ़ोन रखों न मैं सब देख लूँगा, अभी आश्रम के father आ गएँ हैं मैं उनसे भी कुछ बात कर लूँ।” कहकर मैंने फ़ोन रख दिया और आश्रम के गेट की तरफ बढ़ चला जहाँ मेरे पिताजी और father पहले से ही खड़े बातें कर रहे थे।
“हेल्लो father।” मैंने father की तरफ देखते हुए कहा। पिताजी ने कहा, “यही है मेरा बेटा”
father ने मेरे माथे पर हाँथ फेरते हुए कहा, “GOD BLESS YOU MY SON, कैसे हो?”
“मैं अच्छा हूँ, father।”
“और क्या करते हो?”
“event manager”
“वो अच्छा चल रहा है?”
“हाँ father सभी कुछ अच्छा चल रहा है।”
तभी वहां receptionist आ गई और मुझे बिल थमा कर बोली। सब कुछ ठीक है, रूम भी तैयार हो गया है, आप देखना चाहेंगे?”
पिताजी ने कहा, “हाँ हाँ देख लेते हैं। चलो, आपलोग बातें कीजिए मैं अभी आता हूँ।” कहकर वो लोग चले गए।
मैंने father की ओर देख के कहा, “father मैं जब आ रहा था तब मैंने देखा की आप और पिताजी यहाँ काफ़ी देर तक बातें कर रहे थे। क्या आप पिताजी को पहले से जानते हैं?”
“हाँ-हाँ बहुत पहले से जानता हूँ, जब ये और इसके दोस्त जवान थे और यहाँ हर रोज़ शाम में चाय-वाय के लिए आते थे। तब से जानता हूँ। उस समय इन सबकी नई नई शादी जो हुई थी। और यहीं अपना घर ढूंढा था। फिर कुछ दिनों के बाद जब पैसे कमा लिए सबने तो अपने अपने रास्ते चले गए।”
“ओह! अच्छा अच्छा, हाँ पिताजी तो इसी शहर में बहुत सालों से हैं मुझे याद है। और बताइए।”
“ये हमेशा से एक नेकदिल इंसान था, मुझे आज भी याद है आज से तीस साल पहले इसी चर्च से एक अनाथ बच्चे को गोद ले गया था ये नीरज।” इतना सुनते ही मेरे चेहरे में जैसे जान नहीं, मैं स्तब्ध हो चूका था। father ने मेरे इस भाव को पहचान लिया। आगे बोले, “तुमसे कहने के लिए मना किया था लेकिन किसी इंसान का किया कोई नेक काम अगर इस दुनियाँ के सामने न आए तो ये मेरे जैसे इशवर पर यकीं करने वाले आदमी के लिए शर्म की बात होगी। मन नहीं माना इसीलिए कहना पड़ा।” शर्म के मारे मेरा सर अब उठ नहीं रहा था, father आगे बोले, “अरे ये कोई नई बात नहीं है बच्चे अपने माँ-बाप को हर रोज़ इस आश्रम में छोड़ जाते है, हमने तो ऐसा बहुत देखा है। और किसी के चेहरे पर शर्म की एक लाली भी नहीं होती। तुम भी मत सोचो आराम से जाओ, अपनी जिंदगी जियो, तुम्हारे पिता का ख्याल हम बहुत अच्छी तरह से रखेंगे।” कहकर वो आगे बढ़े और हँसते हुए चले गए।
मैं उस वक़्त तक यही सोच रहा था कि किस तरह हम ना जाने हमारे बारे में कितनी ही बातों से अनजान रहते हैं। कितनी ही बातें हमारी दो आँखों नहीं देख पातीं क्योंकी कई बार सच हमें भी तकलीफ़ पहुँचा सकता है। जिस तरह माँ बाप हमें दुनियाँ की हर बुराई से बचाते हैं वो हमे कई बार हमारे ही भले के लिए कई सच्चाईयों से भी बचाते हैं। ये एक सच्चाई कि मैं एक अनाथ हूँ मेरे माँ बाप ने मुझसे इतने सालों से संभाल के रखी ताकि मुझे एक दिन के लिए भी दुनियाँ में अकेला न महसूस करना पड़े और हम अपने पिता की चंद बुराईयों को बस कुछ दिनों के लिए नहीं संभाल पाए।