शगुन राशि में एक रुपया बढ़ा कर क्यों दिया जाता है

हमारे देश में मांगलिक अवसरों पर पुरातन काल से एक दूसरे को या पारिवारिक सदस्यों, मित्रों को उपहार या शगुन देने की प्रथा है। मौका चाहे सगाई, विवाह का हो ,गृह प्रवेश,व्यवसाय आरंभ करने,जन्मदिन, वर्षगांठ या ऐसा ही कोई भी शुभ अवसर हो,समाज में एक दूसरे को भेंट देने की एक स्वस्थ परंपरा आज भी मौजूद है।
     यदि आप उस उत्सव में शामिल हैं या नहीं भी हैं, तब भी कुछ न कुछ धनराशि अपनी क्षमता या आर्थिक स्थिति अनुसार हर कोई लेता देता है। इसे कई जगह व्यवहार कहा जाता है। अर्थात यह एक सामाजिक व्यवहार है कि आप यदि किसी सामाजिक अथवा धार्मिक समारोह में जाते हैं, वहां भोजन करते हैं या नहीं भी करते, आजकल एक शगुन का लिफाफा अवश्य पकड़ा कर आते हैं। उस लिफाफे में भले ही 11,101,501,1100.......या ऐसी ही किसी संख्या की धनराशि हो, आप देते अवश्य हैं। सबकी कोशिश होती है कि शगुन राशि नई करंसी में ही हो। इसके लिए बेैंकों में कई कई चक्कर लगाने पड़ जाते हैं। विवाहों में पहले करंसी नोटों के हार पहनाने का बहुत रिवाज था खासकर एक रुपए के नोटों का। बाद में कई लोग दो दो हजार के नोट आने पर इसके भी हार दूल्हे को पहनाने लगे हैं। इसके साथ साथ विवाहों में उपहार भी दिए जाते हैं।
       विवाहों या ऐसे ही समारोहों में पहले भी और आज भी अपने सामर्थ्य से अधिक व्यय होता आया है। ऐसे आयोजनों में गरीब से लेकर अमीर तक अपने बजट से अधिक खर्च करता है जिससे उसका आर्थिक भार कई गुणा बढ़ जाता है। इस आर्थिक भार को बांटने के लिए,शगुन की प्रथा समाज में आरंभ की गई थी ताकि कन्या के विवाह में हुए खर्चों को मिल बांट कर आर्थिक बोझ को कम किया जा सके। गांवों में तो ऐसे अवसरों पर पूरा गांव ,कन्या के विवाह को अपने घर का विवाह समझता था और काम से लेकर दाम तक हर तरह की मदद करता था। समय बदलता गया। केटरर, वेडिंग प्लानर्स आ गए, डेस्टिनेशन मैरिज का रिवाज हो गया। खर्चे पहले भी कम न थे, आज भी नहीं हैं। यहां तक कि बड़े घराने तक लोन लेकर आज भी विवाह कर रहे हैं,गरीब तो बहुत पहले से करता आया है। विवाह में दहेज व दिखावे ने सबका बजट हिलाया है जिसकी पूर्ति में काफी समय लग जाता है। इसलिए शगुन पहले भी था आज भी है।
     हर परिवार ऐसे अवसरों पर एक डायरी लगा कर रखता है जिसमें हर संबधी या शुभचिंतक के नाम के आगे शगुन राशि और उपहार का नाम जैसे अंगूठी, हार इत्यादि लिखा जाता है और उसके परिवार में ऐसे ही अवसर आने पर दी गई शगुन राशि में कुछ और वृद्धि कर के लौटाया जाता है।
इन शगुन के लिफाफों में एक बात बहुत महत्वपूर्ण रही है कि शगुन राशि सदा एक रुपया बढ़ा कर दी जाती रही है। क्या आपने कभी सोचा ?
इसके पीछे भावनात्मक,ज्योतिषीय,सामाजिक,मनोवैज्ञानिक कारण रहे हैं।
       जीरो अर्थात शून्य, एक अंत को दर्शाता है जबकि एक का अंक आरंभ का परिचायक है। जब हम किसी राशि में एक जोड़ देते हैं, हम इसे प्राप्तकर्ता के लिए वृद्धि की कामना करते हैं।
     यदि राउंड फिगर अर्थात 10,100,500 या 1000 की संख्या  को गणित की दृष्टि से देखें तो ये अंक किसी भी संख्या से विभाजित हो जाते हैं जबकि 11,101,501,1100 आदि को आप विभाजित नहीं कर सकते। इसी लिए ये संख्याएं ईश्वर का आशीर्वाद मानी जाती हैं।
      मूल राशि में एक रुपया जोड़ना एक निरंतरता का प्रतीक है ताकि हमारे संबंधों में एकरसता और निरंतरता बनी रहे। संबंध प्रगाढ़ बने रहें।
एक और बड़ी बात! एक रुपये के  नोट की बजाय, यदि एक रुपये का सिक्का हो तो वह धातु से बना होता है जो धरती माता का एक अंश होता है और लक्ष्मी जी से जुड़ा माना जाता है। यह धन के वृक्ष का बीज माना जाता है। आपने शगुन के लिफाफों में इस सिक्के को चिपका पाया होगा।
     इस एक रुपये के पीछे आपकी शुभकामनाएं छिपी होती हैं कि जिन्हें हम भेंट कर रहे हैं उनके यहां बरकत हो सुख समृद्धि की वृद्धि हो। मंदिर या धार्मिक स्थानों पर भी इसी प्रकार की राशि का दान किया जाता है।
       समय समय पर हमारी सरकार किसी न किसी उपलक्ष्य में सिक्के जारी करती है। दीवाली के अवसर पर बैंक या ज्यूलर्स , सोने या चांदी के सिक्के निकालते हैं जिन्हें लक्ष्मी पूजन के समय रखा जाता है और परिवारों में इसे बेचा नहीं जाता अपितु साल दर साल ,इसमें और वृद्धि ही की जाती है। अक्षय तृतीया तथा धन त्रयोदशी पर भारत में सोने या चांदी के सिक्के खरीदने और उन्हें संजो कर रखने की प्रथा है। मान्यता है कि इन अवसरों पर खरीदे गए सिक्कों में निरंतर वृद्धि होती रहती है।
      दूसरी ओर  किसी के स्वर्ग सिधारने पर आयोजित शोक सभा में दिवंगत की फोटो के आगे, गुलाब के फूलों के अलावा एक थाली रखी जाती है जिसमें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए, प्रत्येक व्यक्ति 10,20,50,100 या ऐसी ही राशि का नोट अर्पित करता है, 11,51 या 101 नहीं। यह भी एक सांकेतिक प्रथा है कि हम शून्य के माध्यम से एक अंत को दर्शा रहे हैं कि अब परिवार में यह दुख समाप्त हो, इसमें परिवार के दुखों में वृद्धि न हो।
करंसी, सिक्के, राशि वही हैं, बस भावनाएं और अवसर अलग अलग हैं।


तारीख: 13.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है