बलि की आती बात
देवी का लेते नाम
क्यूँ कर दिया समाज ने
स्त्री को यूँ बदनाम|
संस्कृति हमारी सर्वश्रेष्ठ
कलंक बन गयी है बलि
कोई बताये हमको
प्रथा कब,कहाँ से चली ?
देवी तो है नारी
नारी मन निष्पाप
देते बलि निरीह की
खुद के बढाते पाप|
नही पढ़े है मैंने
पोथी और पुराण,
जननी रूप है देवी
कैसे ले सकती जान ?
बलि चढाओं स्वार्थ को
बलि करो अहंकार,
छल द्वेष को पालते
निरीह को रहते मार|
अंधा हो रहा समाज
अपने ही सुख के आगे
पाप हत्या का लेता
देवी से रक्षा मांगे|
सर चढ़कर बोलेगा
हत्या का ये पाप
छोड़ दे देवी आसन अपना
उससे पहले जाओ जाग ||