चाँद रातों की ख़ामोश गहराइयों में,
जब सारा शहर नींद में डूब जाता है,
एक अकेली खिड़की से झाँकता मन,
अपने होने का अर्थ तलाशता है।
आसमान में टिमटिमाते तारे,
जैसे कुछ अधूरे सपने,
जो अब तक ज़िंदा हैं,
दिन के उजालों से बचते हुए।
चाँदनी की नरमी में,
मन के पुराने घाव सिहरते हैं,
जैसे कोई भूली हुई आवाज़
धीमे-धीमे गुनगुनाती है,
कहती है:
"रात है, आराम करो,
कल फिर संघर्ष है।"
और फिर आता है दिन—
वो बोझिल दिन,
जो कंधों पर भारी-भरकम पत्थरों-सा
लद जाता है।
हर क़दम जैसे मुश्किल पहेली,
हर कोशिश जैसे धीमी यातना,
धूप के तेज़ थपेड़े,
सोच को जलाकर
अधीर कर देते हैं।
दिन की भीड़, भाग-दौड़, शोर
अपने साथ खींच ले जाती है—
उन सपनों से दूर,
उन ख़यालों से दूर,
जो चाँद रातों में
मन को छू जाते थे।
शाम तक आते-आते,
थके-हारे कदम
फिर लौट आते हैं
उसी खिड़की के पास,
जहाँ से रात फिर अपनी बाँहें फैलाए
इंतज़ार में होती है।
चाँद रातें और बोझिल दिन—
शायद यही जीवन है।
रात में सुकून के छोटे-छोटे द्वीप,
दिन में संघर्ष की विराट लहरें,
एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं।
और मैं,
इन्हीं दो किनारों के बीच
आता-जाता रहता हूँ,
हर बोझिल दिन के बाद,
चाँद रातों के इंतज़ार में,
हर चाँदनी रात के बाद,
फिर से उसी बोझिल दिन की ओर बढ़ता हुआ—
यह सिलसिला
दिन-रात की इस टकराहट में
हमारे भीतर एक यात्रा बुनता है,
जहाँ चाँद रातों के सपने
हमें ऊपर उठने का हौसला देते हैं,
और बोझिल दिन
हमें ज़िंदगी की सच्चाइयों से
रूबरू कराते हैं।