फिर से दिखा कैफ़े पीटर


एयरपोर्ट उतरा कई बरसों बाद,
रास्ते में फिर से दिखा वही कैफ़े पीटर।
धुंधली-सी यादें उभर आईं अचानक,
जैसे भूले गीत का टूटा हुआ मीठा-सा स्वर।

 

वही पुरानी खिड़की, वही कोने वाली मेज़,
शायद वही कॉफ़ी की महक भी मौजूद थी।
पर कुछ तो बदल गया था उस हवा में,
कुछ खो चुका था वक़्त की गहरी परतों में।

 

टैक्सी चली, सड़कें जानी-पहचानी थीं,
हर मोड़ पर सवाल, एक अनकही कहानी थी।
वो मॉल, जहाँ घंटों घूमते, कुछ नहीं खरीदते,
वो पब, जहाँ बेमतलब हँसते, ज़िंदगी में डूबते।

 

हर गली, हर मोड़, एक पुराना एल्बम-सा,
हर पन्ने पर चेहरे, हर चेहरे में मौसम-सा।
बारिश में भीगना, चाय की वो गरमाहट,
छोटी-छोटी खुशियाँ, बेवजह की आहट।

 

क्या अब भी भीड़ लगती होगी कैफ़े पीटर में?
क्या अब भी कॉफ़ी उतनी ही कड़क होगी?
क्या अब भी कोई उस कोने वाली टेबल पर,
घंटों इंतज़ार करता होगा, बेसब्री से, किसी के आने का?

 

शायद नहीं।
क्योंकि वक़्त बदलता है,
और लोग भी बदल जाते हैं।
यादों के रंग फीके पड़ते हैं,
पुरानी तस्वीरों की तरह।

 

पर कुछ एहसास,
मरते नहीं कभी,
दिल के किसी अंधेरे कोने में
सिमटे रहते हैं हमेशा के लिए।

 

ये शहर,
अब मेरा नहीं रहा,
अब तुम्हारा भी नहीं।

ये बस एक यादों का ठहरा हुआ शहर है,
जहाँ कभी हम थे, साथ थे,
शायद एक-दूसरे के लिए बने थे।

पर अब नहीं।
अब बस कैफ़े पीटर है,
जो ख़ामोशी से देखता है
हमारे बिखरे अतीत को,
चुपचाप, बिना कुछ कहे।


तारीख: 11.08.2025                                    मुसाफ़िर




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