कविताएँ छुपी रहती हैं
दिल के किसी गहरे कोने में,
बिल्कुल उन बच्चों की तरह
जो छुपन-छुपाई खेलते हुए
घर के अनजाने कोनों में
साँस थामे इंतज़ार करते हैं
किसी के उन्हें खोज लेने का।
कुछ बच्चे
झट से पकड़े जाते हैं,
हँसते हुए "धप्पा!" कहते,
और कुछ को तलाशते-तलाशते
चिंता होने लगती है,
कि कहीं वे
बहुत दूर तो नहीं चले गए,
किसी अनजान मुश्किल में तो नहीं फँस गए?
वैसे ही कुछ कविताएँ,
सहजता से निकल आती हैं,
काग़ज़ पर तुरंत बिछ जाती हैं—
मुस्कुराती हुई,
शब्दों के खेल में
खिलखिलाती हुई।
और कुछ कविताएँ
इतनी नटखट होती हैं
कि हम माथे पर पसीना लिए,
उम्मीद की एक नन्ही-सी रोशनी थामे,
उन्हें खोजते रह जाते हैं
दिल के हर एक मोड़ पर,
पुरानी डायरी के पन्नों में,
भूले-बिसरे ख्यालों में,
रातों की अनदेखी ख़्वाबगाहों में।
पर वो कविताएँ
मुस्कुराती हुई छुपी रहती हैं,
जैसे कोई शरारती बच्चा
माँ की आवाज़ सुनकर भी
जान-बूझकर बाहर न आए।
जब अंत में
थककर बैठ जाते हैं हम—
निराश, हताश—
ठीक तभी,
कहीं से निकल आती है
एक कविता,
धीमे-से हँसती हुई,
जैसे कहती हो,
"थक गए ना मुझे खोजते-खोजते?
लो, अब ख़ुद ही तुम्हारे सामने हूँ!"
और तब वह कविता
धीरे-धीरे हमारी साँसों में घुल जाती है,
हमारी धड़कनों में समा जाती है,
और हम उसे सहेज लेते हैं
अपनी डायरी के
किसी प्रिय पन्ने पर,
अपने दिल के किसी सुरक्षित कोने में।