एक कोना
मेरा अपना
जंगल के कोलाहल में
दिल की गहराइयों से शांत
भूख अनगिनत रूपों में
अभी भी बन कर हवा
मंडरा रही चहूँ ओर मगर
खुद को खुदा से मिला रहा हूँ ।।
रम गई सोच,सुस्त हुई अक्ल
हाँ! अब मैं पहुँच ही गया हूँ ।
देख हवा! बन सखी
धीरे से गुजरना
ऐ पत्तो ! चुपके से सरसराना
मेरे गुरु पेड़ के तने !
तू यूँ ही मेरा साथ निभाना ।
बस मैं सजीव से
तुझ जैसा जड़ ही हो चला हूँ ।।
जीवन में घात,आघात,वार बहुत हैं ।
तभी तो मैं तुझ सा हो जाना चाहता हूँ ।
जो पाप-पुण्य की दौड़ थी ।।
जो हार-जीत की बात थी ।।
जो छोटे-बड़े की जात थी ।।
छोड़ उसे
मैं तुझ संग निर्लिप्त हो चला हूँ ।।
ऐ जड़ तने! मैं पल भर में
रह कर तुझ संग संत हो चला हूँ ।।