हमारे रिश्ते का वो पौधा, जो आँगन में हरा-भरा था,
हर पत्ती एक वादा थी, हर शाख़ भरोसे पर खड़ा था।
वो हँसी की धूप में खिलता, बातों की नमी में जीता था,
लगता था जैसे जीवन का, हर मौसम इसने जीता था।
फिर जाने किस नज़र ने डँसा, या कौन सी दीमक लग बैठी,
बातों के पत्ते पीले पड़े, ख़ामोशी की परत जम बैठी।
भरोसे की टहनियाँ गलने लगीं, हर छुअन में एक सड़न सी थी,
उस हरे-भरे से जीवन पर, अब मौत की गहरी घुटन सी थी।
जड़ों को बचाने की ख़ातिर, एक फ़ैसला लेना था भारी,
अलगाव की कैंची लेकर, मैंने हर डाली उसकी काटी।
जो सड़ रहा था, जो दुखता था, वो सब कुछ मैंने छाँट दिया,
तुम्हें बचाने को तुमसे ही, मैंने तुमको जैसे बाँट दिया।
अब गमले में बस एक ठूंठ है, ख़ामोश, अकेला, बेज़ुबान,
जिस पर मैं रोज़ उम्मीद के, कुछ छींटे देता हूँ नादान।
टकटकी लगा कर तकता हूँ, क्या कोई कोंपल फूटेगी?
क्या जीवन की कोई हरकत, इस सूखी लकड़ी से छूटेगी?
या मर चुकी हैं जड़ें भीतर, और मैं बस ख़ुद को भरमाऊँ?
कब तक इस मुर्दा टहनी पर, मैं ज़िंदा होने का भरम पाऊँ?