सांभन अप्पा- संस्मरण

                  
                     जीवन में कई बार हम ऐसे व्यक्तियों से टकराते है, बाद में जिनकी स्मृतियों से निज़ात पाना खासा कठिण होता है। वर्ष 2012, जब मैं भारतीय रेल सेवा में नियुक्त होकर केरल के तटवर्ती नगर कोल्लम पहुँचा, तब मैं भी ऐसे ही एक व्यक्ति के संपर्क में आया। उनका नाम था “ सांभन ”। उॅंचा कद, तिखे नाक-नक्श, भरी-पूरी कद काठी, मेहनत से जला हुआ रंग, सिर पर थोडे कम बाल और चेहरे पर सदा बने रहनेवाली मुस्कान लिए वे एक पक्के द्रविडीयन व्यक्ति थे। पर, मुँछों से उनकी क्या दुश्मनी थी पता नहीं ? मैंने हमेशा उन्हें खाकी रंग की वर्दी में ही देखा, लाल रंग का गमछा सिर पे लपेटे हुए। मेरी और उनकी पहचान ऑफीस तक ही सिमीत थी, ऑफीस के बाहर शायद ही कभी हमारी भेंट हुई हो।


                      भारतीय रेल में नियुक्ती की कागज़ी कार्यवाही के सिलसिले में मुझे सात दिन तिरूअनंतपुरम में रूकना पडा था। जिससे केरल की संस्कृति का थोडा ज्ञान मुझे हो गया था। केरल आने से पहले हर दक्षिण भारतीय व्यक्ति मेरे लिए “अन्ना” था, जैसे सभी उत्तर भारतीयों के लिए होता है। पर, यहाँ अन्ना का मतलब भाई होता है ये मैने जाना। हम-उम्र व्यक्ति को अन्ना कह सकते है पर, अधिक उम्र के व्यक्ति के लिए अन्ना ये संबोधन आदरयुक्त नहीं था। केरल में ” अप्पा ” पिता का समानार्थी शब्द है, शायद इसीलीये मैं सांभन को अप्पा कहने लगा, “ सांभन अप्पा ”।    


                    मैं सांभन अप्पा को केवल एक वरिष्ठ रेल कर्मचारी के रूप में जानता था, उनके सामाजिक एवं पारिवारीक रूप से पुर्णताः अनभिज्ञ। मुझे उनका पुरा नाम तक नहीं पता था। उनकी आयु 50-52 की रही होगी, पर फुर्ती जवानो को शर्मिंदा करती थी। वे एक ईमानदार, मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे, इसीलीये अफसरों के प्रिय थे। कुछ लोग उन्हें चापलुस, साहब का चमचा कहते पर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा। हिंदी और मलयालम भाषियों के बीच होनेवाले विवादों में वे हमेशा एक तटस्थ भुमिका निभाते। वे समय के बडे पाबंद थे। सुबह हमारे ऑफीस पहुँचने से पहले वे आ चुके होते और शाम को हम जब वापिस आते तब भी वे किसी काम में व्यस्त रहते। मैं देढ वर्ष केरल में रहा पर सांभन बिमार है, छुट्टि पर है ऐसा नहीं सुना। केरल की दिवाली “ओणम” जैसे त्योहार में भी वे पुरी तन्मयता के साथ अपनी डयुटी निभाते।


                   हम हिंदी भाषियों को अक्सर उनके साथ काम करने का अवसर मिलता। उनकी सह्नदयता, दयालुता, तटस्थता शायद इसकी वज़ह थी। हमारे साथ पक्षपात ना हो ( वहाँ जिसके पुरे आसार थे ) इसीलीये भी साहाब सांभन अप्पा को हमारे साथ रखते हो। वे हम सभों का पुरा ध्यान रखते। सावधानी और सुरक्षा के साथ काम करवाना उनकी प्राथमिकता रहती। वे हमें हमारे काम से परिचीत करा रहें थे। वे स्वंय काम करकर हमें समझाते, मेरे लिए तो वे मेहनत का दुसरा नाम थे। लंच में वे हमें उत्तम भोजन के स्थान पर ले जाते, वे स्वंय भी वहाँ भोजन करते। उन्हें हिंदी का ज़रा भी ज्ञान नहीं था, पर हिंदी बोलने की कोशिश उन जैसे धीर-गंभीर व्यक्ति को भी एक मजे़दार चरित्र में बदल देती।


                  मैंने कभी उन्हें शराब या बिडी पीते नहीं देखा। हाँ पान के वे शौकिन थे जिसकी गवाही उनके दाँत चीख-चीख कर देते थे। मेरा, अप्पा कहकर पुकारना शायद उन्हें पसंद था। मेरी तरफ उनका झुकाव ज्यादा था, अब वे मुझे अपने साथ रखते, हर काम में मुझे साथ ले जाते। जिसके कारण कई बार मुझे भुखा रहना पडा, ज्यादा काम करना पडा। पर, उनके साथ काम करना मेरे अनुभव, कौशल एवं परिश्रम करने के स्तर को बढा रहा था। अब मैं अफसरों के नजरों में आ रहा था, जो आगे चलकर मेरे तबादले में सहायक सिध्द हुआ।
                         मेरे और सांभन अप्पा के बीच वार्तालाप बडी कठिणाई से होता था। वे मलयालम में ही बात करते और उस नई भाषा को समझने का सारा भार मुझ पर डाल देते। उन्होंने कभी भी मेरी सहुलियत के लिए हिंदी बोलना या अपना आशय समझाने के लिए कोई और विकल्प तलाशना नहीं चाहा। वे अपनी बात मलयालम में कहकर मुझे उस असमंजस के सागर में छोड देते, जहाँ मेरे पास उनके आशय को बिना भाषाई सहारे के समझने का कठिण काम होता। इस स्थिती में मैं समय, काम और जगह या उनके हाव-भाव को भाँपकर उनका आशय समझने की कोशिश करता, जिसमें कई बार मैं असफल होता। कभी-कभी हमारे संवाद की कडी ज़ोडने का काम वो ड्रायवर करता जो अरब देशों में रहकर आया था और कामचलाऊ हिंदी जानता था। 


                       कुछ समय बाद भाषा का ये बंधन भी हमारे मध्य नहीं था। अब हमारें वार्तालाप को भाषा की आवश्यकता नहीं थी, वे मलयालम में अपनी बात कहते और मैं काफी हद़ तक उनकी बातें समझ जाता। मैं मलयालम पुरी तरह सीख गया था ऐसा नहीं था, पर हमारी आपसी समझ अब ज्याद़ा बढ गई थी। उन्होंने मेरे नाम ( प्रमोद ) का भी केरलीकरण कर दिया था, वे मुझे प्रमोधा कहकर पुकारते। उनके संबोधन में आत्मियता थी, जो घर से ईतनी दुर दुर्लभ थी।


                      मैंने कभी उनके चेहरे पर थकान नही देखी, दमखम में वे किसी पहलवान से कम नहीं थे। पर दिल से उतने ही नर्म और दयालु। घर से ईतनी दुर, परदेस की अनजानी धुप में, अपनेपन की छाया देते एक विशाल वृक्ष की तरह थे “सांभन अप्पा “..
 


तारीख: 12.08.2017                                    प्रमोद मोगरे









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