बात तब की है जब मैं सात साल का हुआ करता था । उन दिनों मैं हर रविवार अपनी फुफेरी बहन (जो कि मुझसे दो साल बड़ी थी) के साथ मंदिर जाया करता था ।
वहाँ शिवलिंग की पूजा करना, दूध चढ़ाना, जल चढ़ाना, प्रसाद चढ़ाना, अगरबत्ती दिखाना आदि काम हम पूरे मनोयोग से करते थे । फिर घर आकर सबको प्रसाद खिलाते, खुद खाते और तब जाकर कोई दूसरा काम करते ।
एक समय की बात है । दीदी गाँव गई हुई थीं और मेरा मंदिर जाने का मन हो रहा था । पर अकेले जाने में मुझे शर्म आ रही थी । अचानक मुझे एक उपाय सूझा । सोंचा कि घर में ही मंदिर बना लेता हूँ । अतः मैंने विद्यालय में हस्तकला विषय में बनाया एक थर्मोकॉल का घर लेकर उसे बगीचे में एक साफ़-सुथरी जगह पर रख दिया । उसकी थोड़ी साज-सज्जा की और इस तरह तैयार हो गया मेरा मंदिर । अब बारी थी प्रसाद की ।
मैंने पेड़ पर चढ़कर कुछ अमरुद तोड़े और भागकर दुकान से पाँच रुपए की मिश्री ले आया । फिर घर वाले पूजा के कमरे से सबसे नजर बचाकर कुछ अगरबत्तियाँ, एक पीतल का दीप औए एक चालीसा की पुस्तक उठा लाया । सभी सामग्रियाँ मिल गईं पर दीप जलाने के लिए तेल ही नहीं मिल रहा था । मैंने बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ । अंत में हारकर मैं केरोसिन का तेल उठा लाया ।
अब मेरी पूजा शुरू हुई । प्रसाद थाल में जमकर सजा दिए, अगरबत्तियाँ जलाईं और सभी चालीसे पढ़ डाले । अंत में बारी आई आरती की । मैंने बड़े ही प्रेम, श्रद्धा और भक्ति -भाव से दीप में केरोसिन तेल डालकर आरती शुरू की । थोड़ी ही देर में दीप गर्म होने लगा और मेरे हाथ से छूटकर मेरे मंदिर पर गिरा । थर्मोकॉल का होने के कारण मंदिर तेज़ी से जलने लगा । बड़ी मुश्किल से मैंने हाथ जलाकर भी भगवान की मूर्तियों, फोटो और चालीसा वाली किताब को बाहर निकाला और चुपके से उनको पूजा वाले कमरे में रख आया ।
दीप तो पूरा काला हो गया था । मैंने उसे जमकर रगड़ा । जब वह साफ़ हो गया तब जाकर जान में जान आई । और फिर उस दिन के बाद कभी पूजा करने का ख्याल मन में नहीं आया ।