बैंगलोर से पटना एक ट्रेन चलती है संघमित्रा एक्सप्रेस जो इस सफ़र को पूरा करने में पूरे 48 घंटे लेती है. ऐसे ही एक लम्बे सफ़र के दौरान किसी प्लेटफार्म के एक बुक स्टाल पे बोर होती मेरी निगाहों की मुलाकात हुई दिव्य प्रकाश दुबे जी से मतलब उनकी किताब मसाला चाय से. सच कहूँ तो ये किताब मैंने यूँ ही सफ़र के दौरान बोरियत मिटाने के लिए ली थी और इस किताब से मुझे कोई खास उम्मीद नहीं थी.
ये किताब एक कहानी संग्रह है जिसमे कुल 11 कहानियाँ हैं, सभी कहानियाँ बेहद सरल भाषा में लिखी गयी हैं और कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्द ज्यों के त्यों रखे गए हैं जो शायद कुछ भाषाविदों को पसंद न आये. किताब की पहली कहानी है "विद्या कसम " जो कुछ मासूम स्कूल के बच्चो और उनकी मासूम हरकतों से आपको आपके बचपन और स्कूल की यादो में ले जाएगी. पहली ही कहानी से आपको ये महसूस होना शुरू हो जाएगा की कहानी के पात्र असल जिंदगी से कितने करीब हैं और कई पात्र और घटनाएँ आपको आपके दोस्तों या आपके जीवन के किसी घटना को याद दिलाएंगे. किताब की आगे की कहानियाँ भी स्कूल कॉलेज के युवाओं, उनके सपनो, उनकी जिज्ञासाओं, उनके संघर्ष और उनके रिश्ते जैसे विषयो पर है.
मूलतः यह किताब युवा वर्ग के जीवन को दर्शाती है जिसमे उनके स्कूल से लेकर कॉलेज की गलियों से होते हुए उनकी पहली नौकरी तक के सफ़र के बीच की घटनाओं को बारीकी से लिखा गया है. हर कहानी का अपना अलग जायका है. दिव्य प्रकाश जी ने बड़े कायदे से इन सब बिखरी घटनाओं को एक मजेदार तरीके से एक किताब का रूप दिया है.
किताब पढ़ें या न पढ़ें:
हिंदी साहित्य के लिहाज से ये कोई क्लासिकल किताब नहीं है और ना ही लेखक ऐसा कोई दावा करते हैं. लेखक की मंशा एक हल्की-फुल्की मगर मजेदार किताब लिखने की है जो लेखक ने ईमानदारी से किया है. किताब में कहीं-कहीं गालियों का प्रयोग इसे कम उम्र के पाठकों के लिए वर्जित करता है! इंजीनियरिंग के छात्रों को ये किताब दिल के करीब लगेगी क्यूंकि लेखक खुद एक इंजिनियर हैं और कई कहानियो का केंद्र इंजीनियरिंग कॉलेज है मगर इसका मतलब ये बिलकुल नहीं की बाकि पाठकों के लिए इस किताब में कुछ नहीं है. कुल मिलकर मसाला चाय हिंदी साहित्य के ठहराव के युग में एक अच्छी पहल है.