जैसे लम्हा भी इक सदी गुज़रा
इस तरह वक़्ते-तिश्नग़ी गुज़रा
खुद को भी जब भुला दिया मैंने
नाम लब से तिरा तभी गुज़रा
जितने भी हमसफ़र मिले मुझको
करके हर शख़्स रहज़नी गुज़रा
हिज्र के वक़्त में मेरे हमदम
करके सावन भी दिल्लगी गुज़रा
जिसको माना है मैंने अपने पवन
करके वह शख़्स बेरुखी गुज़रा