ख़ानाबदोश

मालिकाना हमारा था, ताहम घर से निकाले गए हम
ख़ानाबदोश क़ाफ़िले की ख़ोज में भटकते रहे हम

एक सूरत सजाई, जिसे बदसूरत लगने लगे हम
पर्दानशी एक आईने की तलाश में भटकते रहे हम

उसे वफ़ा सिखाई, खिताबे बेवफ़ा नवाज़े गए हम
वफ़ा आजमाने ख़ातिर अपनी फिर भटकते रहे हम

बाज़ार से बचाया उसे, फिर नीलाम भी जो हुए हम
यारब एक मुश्तरी की चाह में दर दर भटकते रहे हम

था अश्क़िया सनम से इकरार, बस फिर जो टूटे हम
मुरत्तिब भी करते खुद को और साथ सिसकते रहे हम


    


तारीख: 04.07.2025                                    अभय सिंह राठौर




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