मौसम ने बदलने की कसम खाई है

मौसम ने बदलने की कसम खाई है,
दूर तक कोहरा है दूर तक तन्हाई है ।

जाने क्या रेंगता था कल तक मुझमें,
ग़ौर से देखा तो वो मेरी ही परछाई है ।

कुछ दिनों से उसने मेरी राह नहीं देखी,
आज कैसे वो हवा मेरी तरफ आई है ।

इतना आगे बढ़ गया है सब कुछ यहां,
पर लोगों में ना ठहराव है ना गहराई है ।

सुन के किस्सों पे किस्से इश्क़ वालों के,
एक पत्थर की ऑंखें भी भर आई है।

इस तरह पत्तों का बिखरना देख कर,
फूल-कलियाँ क्या खुशबू भी मुरझाई है ।

ना "सहर" तेरा है, ना "ग़ज़ल" मेरी है,
फिर ये किस बात की आशनाई है ।


तारीख: 18.06.2017                                    करन सहर"






रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है