उनकी महफिल के हम भी तलबगार हैं ।
लेकिन मेरे हिस्से में गुनाह हज़ार हैं ।।
न शिकवा किया कभी न गिला हमसे,
इसी बात से हम सदा शर्मसार हैं ।।
एक हम ही नहीं उनकी ज़िंदगी में,
जमाने के और भी गम बेशुमार हैं ।।
वो पागल है चाहत की दौलत को पा,
और हम जमाने भर के समझदार हैं ।।
अपने सिर ले लिए गुनाह सारे इश्क़ में,
वो आज भी मेरे सच्चे मददगार हैं ।।
तराशता है मुझको हर कदम साथ चल,
कभी वो सुनार तो कभी कुंभकार है ।।
करीब आता है औ’ सीने से लगा लेता है,
वो साँसों का बन जाता राज़दार है ।।