मायूसियां जब देखीं

मायूसियां जब देखीं खुद्दारों के चेहरों पर
एक हंसी सी दौड़ गई गद्दारों के चेहरों पर

उजले घर शहरों मे गवारा नहीं थे उसको
कालिख पोत गया वो दिवारों के चेहरों पर

मैंने जब पूछा ये बिरानियां कहाँ सजा दूं मैं
बड़ी लरज के बोला बहारों के चेहरों पर

मैंने आसमानों की जानिब देखा ही था कि 
बादल आकर छा गए सितारों के चेहरों पर

जमाने मे जब औरतों के हक की बात आईं
शिकन सी आ गई समझदारों के चेहरों पर

दरिया तेरा सूख जाना बहुत खल गया उन्हें
आज उदासी देखी कहारों के चेहरों पर


तारीख: 14.02.2024                                    मारूफ आलम




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है