मेरी ग़ज़ल भी तुम्हारी रोटी  जैसी हो जाए 

मेरी ग़ज़ल भी तुम्हारी रोटी  जैसी हो जाए 
जिसे खा के किसी पेट की आग मिट जाए

हरेक नज़्म हो दर्ज़ी की  कैंची के माफिक
गर लफ्ज़ बिगड़े तो ज़ुबान तक कट जाए 

हर हर्फ़ ने छिपा रखा हो आसमाँ का राज़
जो बरसे कभी तो ज़मीं का दिल फट जाए 

नुक्ते-नुक्ते में हो किसी बच्ची की किलकारी 
सुनके जिसे सारा का सारा  गुरूर घट जाए 

मतला अगर उठे तो बाप के हाथ की तरह
जिसकी छाँव में सुख बढ़े , दुःख बँट जाए   

अहसासों  में घुले किसी चाशनी की भाँति 
और माँ की लोरी के जैसे लबों को रट जाए 


तारीख: 07.04.2020                                    सलिल सरोज




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