सच में रिश्ते तुम्हारे- मेरे कुछ गहरे थे

सच में रिश्ते तुम्हारे- मेरे कुछ गहरे थे
या बुलबुलों की तरह पानी पर ठहरे थे

शोर तो बहुत किया था मेरी हसरतों ने
लेकिन शायद तुम्हारे अहसास बहरे थे

कितनी कोशिश की मैं छाँव बन जाऊँ
ख्वाहिशें तुम्हारे चिलचिलाते दोपहरें थे

कब देखी  तुमने हमारे प्यार का सूरज
निगाहों पर  तुम्हारे धुन्ध और कोहरे थे

लगता तो था कि हम एक हँसी हँसते हैं
अब मालूम हुआ  कितने अलग चेहरे थे


तारीख: 16.10.2019                                    सलिल सरोज




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है