[इश्वर हमेशा अपने रहस्यमय तरीकों से काम करते हैं – विलियम कॉव्पेर God works in mysterious ways – William Cowper]
इस कहानी के मुख्य संवाद तमिल भाषा में हुए थे परन्तु हिंदी भाषा में इसे लिखा गया है। इस रूपांतरण के तहत कहानी में कोई भी त्रुटी या गलती हो तो उसके ज़िम्मेदार लेखक हैं।
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तमिलनाडु के एक छोटे से जिले में मेरे पिताजी का घर था। वहां कुछ आठ गाँव थे और उन्ही में से एक में मेरे पिता संग उनके बड़े भाई, एक छोटे भाई और एक छोटी बहन का जन्म हुआ था। पिताजी और चाचा तो गाँव के माहौल से निकल कर शहर में बस गए थे। परन्तु बड़े पिताजी और बुआ अब भी उसी माहौल में थे। इसी वजह से उनकी सोच थोड़ी पिछड़े ज़माने की थी ऐसा मुझे लगता था। मैं परिवार के साथ अक्सर छुट्टियों में गाँव जाया करता था और इस साल भी गाँव गया हुआ था तभी ये किस्सा हुआ।
उन दिनों दादा और दादी ने गाँव में एक पुराने मंदिर को फिर से ठीक करने का ज़िम्मा उठाया था। अंग्रेजों के ज़माने में गाँव में एक विष्णु मंदिर बना था परन्तु बहुत सालों से उस मंदिर में ज्यादा बड़ी कोई पूजा नहीं हुई और ना ही अब कोई पंडित वहां बैठते थे। गाँव में अब और भी बहुत से छोटे-छोटे मंदिर बन उठे थे। इसलिए लोग कल्याणम (शादी), पूणन (जनेऊ) और मोट्टिए (मुंडन) जैसे पर्व उन्ही मंदिरों में करवाते थे। पहले चोल राजा के समय में कुल देवता की प्रथा हुआ करती थी लेकिन अब ऐसी प्रथा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। इसलिए मंदिर थोड़ा पिछड़ा रह गया।
लेकिन दादा के पिता खुद उस मंदिर के पुजारी थे इसलिए दादाजी ने इस मंदिर को इस तरह नहीं छोड़ा। उनकी इस मंदिर से कुछ यादें जुड़ी हुई थीं इसलिए वो इसकी देखभाल में लग गए। उन्हें पूरा यकीन था कि लोग इस मंदिर में दुबारा आयेंगे। न जाने ये कैसा विश्वास था। हमने भी उन्हें नहीं रोका। दोनों बूढ़े-बूढी हर रोज़ निकल जाते थे। मंदिर की साफ़ सफाई से लेकर हर छोटे-मोटे काम वो अब मिलकर करने लगे। फिर शाम में एक आरती का समय निकाल लिया करते थे। पास-पड़ोस के लोग कभी आ जाते या कभी वो भी न आते। लेकिन हम सब पूरा परिवार साथ में ज़रूर रहते थे इस मंदिर के कार्य में। इसी तरह मंदिर का काम चल रहा था।
लक्ष्य था इस साल की रामनवमी से पहले मंदिर को पहले जैसा सजाना हैं। फिर उसमे अच्छी सी कारीगिरी भी करवानी है और वहां एक बार फिर सारे गाँव को बुलाना है। ऐसी सोच को लेकर चले थे मेरे दादा दादी। मुझे जान कर बड़ा गर्व हुआ अपने घरवालों पे कि ऐसा भी कोई कार्य है जो वो करना चाहते हैं, लोक कल्याण के लिए। फिर मैंने भी उनके इस काम में हाँथ बटाना शुरू किया।
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बात बनने भी लगी, मंदिर का फर्श घिस घिस कर बेहद साफ़ दिख रहा था। सामने से अन्दर आने वाला बागीचा बड़े पिताजी ने अपने हांथो से बनाया,वो भी बहुत सुन्दर था। चारों ओर चबूतरे पे साज-सजावट और रंगोली दादी ने कर दी थी, पापा ने विष्णु जी की मूर्ति पे काम किया और मैंने थोड़ा बहुत मंदिर के झोल झाड़ दिए थे। हमारी मेहनत ने रंग अच्छा दिखाया था। मंदिर अब अच्छा लग रहा था।
बस कुछ ही दिन रहें होंगे रामनवमी को कि ज़ोरदार बारिश होनी शुरू हो गई। गाँव में बहुत जोर की बारिश हुई करीबन तीन फूट तक पानी पहुंचा था और बाढ़ से बहुत कुछ बह गया। बस पक्के मकान सलामत रहे। अगले दिन जब हम मंदिर पहुंचे तो देखा मंदिर के पीछे वाली दीवारी पे एक बड़ा पेड़ आ घुसा है। शायद पानी के बहाव से टुटा पेड़ बह आया हो और मंदिर की दीवार से आ टकराया। धक्का शायद जोर का था और दीवार सालों की कमज़ोर थी। मंदिर की दीवार में एक बड़ा छेद हो गया था और छेद भी अच्छा खासा था जो दूर से ही दिख रहा था।
हम सब ने हाथों से सर पकड़ लिया। हम सब की मेहनत अब बेकार हो गई। बस कुछ ही दिन बचे हैं रामनवमी को और मंदिर का ये हाल, अब क्या करेंगे? सबने बड़ी मेहनत की मरम्मत में लेकिन किसी के ध्यान में ये नहीं आया कि मंदिर की दीवार भी पुरानी हो चुकी है उसे ठीक करा लें। आधी टूटी दीवार बहुत ख़राब लग रही थी। दादी ने अपनी सोच बतलाई कि इसे किसी चीज़ से ढक देते हैं।
पर किससे?
इतनी लम्बी और गोल कोई वस्तु मिले तब न? सबने अलग अलग सलाह दी भूसे का ढेर, रस्सी का गोला, चूने की रंग की हुई लकड़ी वैगरह वैगरह, पर कोई भी उपयुक्त नहीं लग रहे थे। कोई बहुत छोटा हो जा रहा था या कोई बहुत कमज़ोर। हमे कोई ऐसी वस्तु चाहिए थी जो की गोल हो, उस आकार की हो और साथ ही मज़बूत भी हो ताकि अगर बीच में पानी भी आए तो उसे रोक सके।
दादा जी निराश हो चुके थे और बारीश को कोस रहे थे। लेकिन बड़े पिताजी आशावादी थे। उन्होंने कहा, “डरने की कोई बात नहीं है, सब कुछ ठीक कर लेंगे हम, बस एक सही तरकीब चाहिए”।
उसी दिन अखबार में एक छोटी सी खबर छपी थी। सरकार टूटी-फूटी, पुरानी और गृह गोदाम में रखी चीज़ों को बेच रही थी। उसके लिए उसने नीलामी का आयोजन किया था वो भी गाँव से कुछ ही दूर, नैवेली में। बड़े पिताजी को पुरानी चीजों का शौक था इसलिए मुझे साथ लेकर चले गए। हम लोग वहां थे तो और ढेर सारी चीजों पे दाम लगाया। सबने तरह तरह के कबाड़ खरीदे। बड़े पिता ने मुझे एक ओर इशारा करते हुए कहा, “वो गोल गुम्बंद्नुमा पत्थर की शिला देख रहे हो?”
मैंने कहा, “हाँ”
“क्या ऐसा लगता है कि वो मंदिर की दीवार में उस छेद को बंद कर सकता है?”
“शायद हाँ, वो आकार और प्रकार में काफी हद तक उसी बड़े छेद के बराबर है। तो आप क्या सोच रहें है, उसे ले चलें?”
बस फिर हम दोनों मिलकर उस शिला को ले आए, थोड़ा भारी था इसलिए जीप करा ली आधे रस्ते में और बाकी आधे में लुढ़काते हुए ले आए। पहुँचने में दोपहर हो गई, मंदिर में अब कोई नहीं था सब घर में होंगे खाना खा रहे होंगे। बड़े पिताजी और मैंने सोचा सबके चेहरे देखने लायक होंगे जब हम उन्हें बताएँगे कि हमने मंदिर की समस्या का हल ढूंढ लिया है। बस फिलहाल अभी इस शिला को यहाँ मंदिर में रखकर घर चलते हैं।
यही सोच कर बड़े पिताजी ने मंदिर का ताला खोला तो पाया वहां दिवार के सहारे एक बुढ़िया लेटी पड़ी है। हमने उन्हें उठाया तो हडबडा कर उठ गईं। उनसे कुछ पूछ-ताछ की तो पता लगा कि यहीं पास में किसी ‘आईयर’ के घर पर काम करने आईं हैं। वो घर में अकेली हैं और अपना पेट पालने के लिए दूसरों के घरों में काम धंधा करती हैं। दोपहर में गर्मी से हालत बहुत बुरी थी इसलिए मंदिर की शरण में थोड़ी देर बैठ गईं थी।
बड़े पिताजी ने उन्हें थोड़ा और रुक कर विश्राम करने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया, “बस थोड़ी देर विष्णु जी से प्रार्थना कर लेती हूँ” ऐसा कहकर वो वहीँ रुक गईं और अपना सर झुकाकर ध्यान करने लगीं। इतनी देर में मैंने और पिताजी ने वो शिला जगह पर लगानी शुरू की।
“ये आपको कहाँ से मिली?” वो बूढी औरत जोर से चीखी और शिला की ओर लपकी।
“ये तो एक सरकारी रद्दी के दुकान में नैवेली में बिक रही थी, हमे लगा कि यहाँ हमारे काम आ जाएगी तो ले आए। क्या आप इस शिला को जानती हैं?”
“जानती हूँ? ये मेरी है। मेरे पति ने इसे अपने हांथो से बनवाया था।” उस महिला ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की:
“मैं इस देश की निवासी नहीं हूँ, मेरा असली घर श्रीलंका में था और मैं वहीँ पली बड़ी थी। शादी के कुछ दिनों बाद ही श्रीलंका में दंगे फसाद शुरू हो गए। लाखों लोगों का घर जला दिया गया, निर्दोष लोगों को मारा और कुचला गया। इसी कारणवश वहां से हम बहुत से तमिल मूल के लोगों को वो जगह छोडनी पड़ी और रिफ्यूजी की तरह हिन्दुस्तान में आना पड़ा। मुझे भी और मेरे परिवार को भी। लेकिन रिफ्यूजी कैंप तक पहुँच पाते उससे पहले ही मेरे पति मुझसे अलग हो गए। अब पता नहीं वो कहाँ होंगे?”
बड़े पिता ने उस औरत से पूछा, “लेकिन ये शिला आपकी कैसी है?”
“मेरा पति एक कुम्हार था, हमेशा मिट्टी की चीज़ें बनता था जो अक्सर टूट जाती थीं, मैंने इस बात से नाराज़ होकर ये कह दिया था कि घर में कोई एक चीज़ तो रखो जो ना टूटे, कम से कम एक तख्ता जिसपर मैं अपने रसोई का सामन रख सकूँ। तो मैंने और उसने मिल कर एक साथ एक बड़े पत्थर तो कूट-कूट कर ये शिला तैयार की थी। इसके कोने में अपना नाम भी गुदवाया है देखो।”
हमने देखा तो सच में उसका नाम था वहां, “अमला” हम दोनों बहुत भौचक्के हुए ये सारी बातें जानकार। कितनी भिन्न होती है न दूसरों की ज़िन्दगी? जब हम उनके बारे में जानेंगे तो ही समझ पाएंगे। हम अब भी यही सोच रहे थे कि ये शिला यहाँ तक कैसे पहुंची?
उस बुढ़िया ने हमारी दुविधा को भांपते हुए कहा, “हो सकता है जो वहां तोड़ फोड़ हुई, उसमे जब मेरे घर को जलाया गया तब इस शिला को भी जलाया गया हो। उसके बाद बहुत से नक्सली व्यापारी का भेस बनाकर समुन्द्र के रास्ते कुछ न कुछ चीजें लेकर अपने साथ आतें हैं ताकि भारत में उन्हें जगह मिल सके। भरत में प्रवेश मिल जाने के बाद उन चीज़ों की कोई एहमियत नहीं रह जाती और वो फ़ेक दिए जाते हैं। जो भी चीजें थोड़ी बहुत भी बेचने लायक लगती है उसे सरकार अपने सरकारी गोदाम में डलवा देती है इस उम्मीद में कि कचरे की ही सही कीमत मिल जाए। और शायद इसी तरह ये शिला उस गोदाम तक पहुंचा होगा।”
खैर हमने उस महिला को हिम्मत दी और उनसे अनुग्रह किया कि वो ये शिला ले जाएँ। अगर ये उनका है तो हम उसे यहाँ नहीं रखेंगे। कुछ देर सोच कर उस महिला ने कहा, “नहीं जाने दीजिए, मुझे अब ये नहीं चाहिए। कुछ समय के लिए इस शिला को देखकर मेरी पुरानी यादें ताज़ा ज़रुर हो गई थीं पर अब सच तो नहीं बदलेगा न? मेरे पति अब जिंदा नहीं हैं। उनके साथ अगर घर दोबारा बसता तो शायद ये शिला किसी काम की होती। बेहतर है जिसकी ज़रूरत ज्यादा है वो ही इसे रखे। अच्छा मैं चलती हूँ। आपके आतिथ्य का धन्यवाद।” कहकर वो औरत चलती बनी।
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शाम हो चली थी और दीवार की उस छेद को हमने उस शिला से भर दिया। शिला मज़बूत और भारी थी इसलिए बारिश से बह जाए ऐसा कोई डर नहीं था और हमने जब उसे साफ़ किया तो वो काफी सुन्दर लग रही थी। उस रात रामनवमी को सभी लोग मंदिर में आए, गाँव के मुखिया और जिला के कलेक्टर साहब को भी बुलावा भेजा था, वो भी आए और पूजा वैगरह की। जितने लोग सोचे थे उससे कहीं ज्यादा आ गए। यकीन नहीं हुआ लेकिन उस शाम की सबसे चर्चित चीज़ थी वो खुबसूरत शिला जो विष्णु जी की शेषनाग वाली मूर्ति के ठीक पीछे थी।
आज आसमान में बादल ज्यादा थे और चाँद आधा ही निकला था इसलिए रौशनी कम थी, मेरे चाचा ने मंदिर के ऊपर रौशनी लगवा दी थी रंग बिरंगी वाली। सबका मिला जुला असर उस शिला को और खुबसूरत बना दे रहा था। सभी लोग बहुत खुश थे कि हमारे परिवार ने एक अनमोल धरोहर को नष्ट होने से बचा लिया। सबने पूछना शुरू किया इस दीवार में लगी शिला के बारे में। गाँव के मुखिया भी इसकी खूबसूरती से काफी प्रभावित थे।
फिर कुछ देर के बाद जब रात ज्यादा हो गई और धीरे धीरे लोग अपने घरों की तरफ चलने लगे तब एक सज्जन सरीखे व्यक्ति ने दादा जी के पास आकर उन्हें बुलाने का धन्यवाद दिया। उन्होंने अपना परिचय दिया कि वो शहर में किराने की दुकान चलाते हैं और गाँव में अक्सर आते जाते रहतें हैं। मुखियाँ के दूर के जान पहचान के कारण वो भी आज यहाँ आ गए। दादाजी ने उनके आने का धन्यवाद दिया और कहा किसी भी प्रकार की सेवा उनके लायक हो वो अवश्य करना चाहेंगे।
जाते जाते उन्होंने कहा, “मेरे मन में काफी देर से इक्छा हो रही थी ये कहने की सो कहे देता हूँ। ये जो दीवार में लगाई गई शिला है बहुत ही सुन्दर और मोहक है। मुझे ये बहुत भा गई। इसे पसंद करने का एक व्यक्तिगत कारण भी है कि किसी समय में जब मैं श्रीलंका का निवासी हुआ करता था तब मैं और मेरी पत्नी के पास बिल्कुल ऐसी ही शिला हुआ करती थी जिसे मैंने ही बनाकर उसे भेंट दी थी। इसे यहाँ देखकर कुछ यादों का फिर से मन में आगाज़ हो उठा है। लेकिन अफ़सोस वो अब इस दुनियाँ में नहीं रही।”
रात में ठंडी बहुत थी लेकिन हमारे रोंगटे तो इस बात को सुनने से खड़े हुए। हमने तुरंत उन्हें आज दोपहर का किस्सा सुनाया।
“क्या सच में ऐसा हो सकता है? वो अब भी जिंदा हो सकती है? मैं अभी के अभी उससे मिलना चाहता हूँ। मुझे उसके पास ले चलिए।”
बड़े पिताजी ने जल्द ही एक जीप बुलाई। हमे याद था उस औरत को किसी आईयर के घर काम करने जाना था। आसपास ज्यादा आईयर नहीं रहते थे। हमने कुछ पूछताछ की और हमने घर ढूंढ ही लिया। जब उस आदमी ने दरवाज़ा खटखटाया और उस औरत ने दरवाज़ा खोला तो एक अदभुत द्रिश्य को हमने अपनी आँखों के सामने देखा। एक बीस साल बिछड़े हुए पति पत्नी को दोबारा मिलते हुए देखा।
दोनों की आँखें भरी हुई थी और ख़ुशी से एक दुसरे को गले लगाते हुए कांप रहे थे वो दोनों। हम सब तो बस पास में खड़े होकर महसूस कर रहे थे कि कितनी गहरी शक्ति होगी इनके प्यार में जो इतने साल बाद भी एक दुसरे को पा लिया, वरना आजकल कितना समय लगता है अगर पति मर जाए तो पत्नी को दोबारा शादी करने में या पत्नी मर जाए तो पति को दुबारा शादी करने में।
कुछ लोग इसे महज़ एक इत्तेफाक कह सकते हैं। एक सिरफिरे बूढ़े दंपति ने एक ज़र्ज़र मंदिर की सफाई का ठेका उठाया, उसके बाद बारिश हुई, बाढ़ आई जिससे मंदिर की दीवार में छेद हुआ, जिसे भरने के लिए एक शिला मिली और फिर उसके बाद बिछड़े हुए पति पत्नी एक ही दिन उसी मंदिर में आ गए और शिला को पहचान लिया। लेकिन अगर इन सब बातों को एक साथ दोबारा दोहराया जाए तो महज़ ‘इत्तफाक’ शब्द इसके लिए छोटा होगा।
सोचिए अगर इस कहानी की एक छोटी सी कड़ी भी टूट गई होती तो शायद बिछड़े हुए पति पत्नी नहीं मिल पाते। अगर मेरे दादा दादी ने मंदिर की सफाई का ज़िम्मा नहीं उठाया होता, अगर भारी बरसात से बाढ़ न आती, अगर वो बाढ़ से मंदिर की दीवार में छेद न हुआ होता, अगर नक्सली उस शिला को समुन्द्र पार न लाते, अगर हमे वो शिला नहीं मिली होती, अगर उस दिन वो औरत हमारे मंदिर में विश्राम न करती और अगर उस दिन वो आदमी मुखिया जी के साथ मंदिर में ना आता।
ऐसे सोचने जाएँ तो सूचि हजारों ‘अगर’ की बन सकती है। सच में कहीं न कहीं ऊपर वाला है, और उसके पास एक बेहद मंझा हुआ और बेहतरीन तरीका है अपना काम करने का। कब किसे क्या देना है और उसका परिणाम क्या होना है, उन सभी बातों का लेखा जोखा शायद पहले से तैयार होता होगा।
How can I say ‘a perfect system’ with a perfect management plan, a perfect chain. वो कहते हैं न “जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है?”
उस दिन के बाद से मैं अक्सर सोचता हूँ कि शायद हम सब का जीवन भी किसी लम्बी श्रृंखला का हिस्सा हो जिसमे हर एक दिन, हर एक पल, हर एक याद और हर व्यक्ति, मात्र एक कड़ी का काम करता हो? शायद उसे ही मैं “अनदेखी श्रृंखला” कहूँगा।
- रघु बालाजी सुभ्रमानियम (नैवेली)