अपनी धूमिल बिखरी ललिमा समेटे
जा रहा है सूरज
फिर लौट आने को
लौट रहा है खेतों से हलधर, हर्षित
फिर लौट जाने को
दूर कहीं नभ के आँगन में
बया नीड़ संजोती है
है वाक़िफ़ के सावन आएगा
उसे उजाड़ जाने को
वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे हैं मिट्टी में
लोट रहे हैं माँ के आँचल में
माँ को ही सताने को
ये किसी जन्नत का वर्णन नहीं ये गाँव है मेरा
जहाँ आज़ाद है सभी
कुछ ख़्वाब सजाने को
इस बहती नदी के उस पार
एक उदास शहर बसता है हसरत लिए आँखों में
गाँव हो जाने को
अपनी धूमिल बिखरी ललिमा समेटे
जा रहा है सूरज
फिर लौट आने को