झूठे सारे रिश्ते-नाते

झूठे सारे रिश्ते-नाते, झूठी सारी अभिलाषाएँ।
स्वार्थलिप्त सब इस दुनिया में, झूठी हैं परहित आशाएँ।।

जिसका अपना समझा उसका, तन उजला है, और मन काला।
होठों पर है मीठी बोली, हाथों में है विष का प्याला।।
अब तो सारे सम्बंधों की बदल चुकी हैं परिभाषाएँ।

कंचन के बदले में बिकते, सम्मानों की हाट की सजी है।
स्वप्न हो गए मूल्यहीन और, नैतिकता विकलांग पड़ी है।।
क्रेता-विक्रेता सा जीवन, दिशाहीन सब जिज्ञासाएँ।

प्रेम-प्रीत की बात न पूछो, सिक्कों में सब-कुछ बिक जाता।
कैसा कालचक्र यह घूमा, बन बैठा नर भाग्य विधाता।।
पुण्य आज अभिशाप हो गए, आदर्शों की जलीं चिताएँ।

कैसी विषम परिस्थितियाँ हैं, धूमिल शब्द भाव भी आहत।
कैसे अब विश्वास जगाएँ, छल-कपटों की है पंचायत।।
कैसे रस आये कविता में, उर में बसती जब पीड़ाएँ।


तारीख: 14.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त









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