शून्य में विलय

 

"बच्चे"–
एक शब्द,
और मेरी रीढ़ में
सिहरन सी दौड़ जाती है।

 

पत्नी की आवाज़
गूँजती है हर सुबह-शाम,
"
अब बच्चे कब करेंगे?"
रिश्तेदारों की आँखों में
इंतज़ार है किसी "खुशख़बरी" का,
दोस्त दिखाते हैं तस्वीरें,
अपने बच्चों की मुस्कुराहटों की
हँसते हुए, खेलते हुए,
दौड़ते-भागते बचपन की।

 

पर मेरी आँखों में
कुछ और ही तैरता है
एक भँवर, एक गहरा कुआँ,
जिसमें मैं धीरे-धीरे गिर रहा हूँ।

इन मासूम मुस्कुराहटों के पीछे
मुझे दिखते हैं थके हुए चेहरे,
बिखरे बाल, अधूरी नींदें,
घर का अस्त-व्यस्त सन्नाटा,
कमरों में गूँजता एक सवाल
"
क्या यही मेरी ज़िंदगी बन जाएगी?"

एक बच्चा,
जैसे कोई नन्हा पौधा
जिसे सींचने के लिए
मुझे ख़ुद को सुखाना होगा।
मेरी नींदें, मेरे सपने, मेरा समय
मेरे होने की सारी परिभाषाएँ
उस पौधे की जड़ों में विलीन हो जाएँगी।

 

मैं ख़ुद को मिटते हुए देखता हूँ
एक मोमबत्ती की तरह
धीरे-धीरे पिघलता हुआ,
अपनी ही लौ में जलता हुआ।
अपनी आवाज़ खोता हूँ,
जैसे गीत की अंतिम पंक्तियाँ
धीरे-धीरे डूब जाती हैं,
किसी गहरी ख़ामोशी में।

 

मैं देखता हूँ उन पिताओं को
जो दफ़्तर से लौटते हैं
कंधों पर थकान, माथे पर चिंता
और घर आते ही
फिर से जुट जाते हैं
बच्चों के होमवर्क में,
उनकी ज़िद, उनके आँसुओं, उनकी हँसी में।
क्या उनके भी कभी सपने थे?
क्या उन्हें भी डर लगता था
इस शून्यता से, इस विलय से?

 

ये डर
केवल ज़िम्मेदारी का नहीं,
बल्कि खुद को खो देने का है।
ये डर है पिता बन जाने का
और ख़ुद के ख़त्म हो जाने का।
ये डर है
एक गहरी ममता में डूब जाने का
और वापस कभी न लौट पाने का।
 

सब कहते हैं
"
बच्चे तो भगवान का रूप हैं,
बच्चे ज़िंदगी का असली मतलब हैं,"
पर क्या मेरा अर्थ
सिर्फ़ एक और अर्थ बनाने में है?
क्या मेरी कोई अपनी कहानी नहीं?

 

शायद ये स्वार्थ है,
शायद ये कायरता भी
लेकिन ये डर,
मेरे भीतर इतना गहरा और सच्चा है,
कि मैं इस शब्द से भागता हूँ
किसी हिरण की तरह,
जो बचना चाहता है शिकारी के तीर से।

 

बस कुछ पल,
शून्य में विलीन होने से पहले,
खुद के साथ जी लेने दो मुझे,
शायद उस शून्य में ही
मुझे मेरा असली 'मैं' मिल जाए
एक नया 'मैं',
जो पिता भी हो,
और इंसान भी।
शायद...
पर अभी नहीं।
अभी तो बस... डर है।


तारीख: 11.08.2025                                    मुसाफ़िर




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