ये शब्द, ये स्याही, ये जागती हुई रातें,
किसके लिए हैं ये पंक्तियाँ, ये बातें?
कागज़ों पर फैली तन्हाई की छाया,
क्या कोई पढ़ेगा इन्हें, या ये है बस मेरी माया?
कलम चलती है, जैसे नदी की धारा,
हर बूँद में मिला हुआ मेरा दर्द, मेरा सहारा।
ख़याल आते-जाते हैं बादलों की तरह,
बरसते हैं, भीगता हूँ, फिर सूख जाता हूँ बेवजह।
कभी लगता है, ये कविता एक रेगिस्तान है,
जहाँ शब्द बोता हूँ मैं, पर कौन यहाँ मेहमान है?
ना कोई राहगीर आता है, ना कोई ठहरता है,
सिर्फ़ रेत उड़ती है, और समय गुज़रता है।
किसके लिए सँवारूँ ये बेचैन शब्दों के फूल?
जब कोई नहीं सूंघेगा, कौन पूछेगा इनका उसूल?
पर फिर भी, ये आदत है, या शायद ये मजबूरी,
जैसे पक्षी गाता है अकेला, सुने या ना सुने दूरी।
शायद लिखता हूँ, मैं ख़ुद को खोजने के लिए,
भीतर के सन्नाटे को, शोर में बदलने के लिए।
ये शब्द, मेरे साथी, मेरे दोस्त, मेरे हमसफ़र,
जो रहते हैं पास, भले ही मंज़िल हो बेख़बर।
शायद एक दिन कोई मुसाफ़िर आएगा,
इन शब्दों के आईने में, खुद को पाएगा।
शायद एक दिन ये भावनाएँ जीवित होंगी,
किसी अनजान दिल की धड़कन में शामिल होंगी।
और शायद यही मेरा होना है,
इन शब्दों में मेरा ज़िंदा होना है।
ना सही आज, ना सही अभी,
पर शायद, यही अर्थ है मेरा, यही मेरी शायरी।