चेहरे जाने-पहचाने,
पर नाम याद नहीं आते।
मुस्कुराहटें—
कुछ जानी-पहचानी,
कुछ अजनबी-सी।
बरसों बाद,
एक चौराहे पर
अचानक मुलाक़ात।
“कैसे हो?”
एक औपचारिक सवाल,
जैसे कोई रस्म निभानी हो।
“ठीक हूँ,”
एक घिसा-पिटा जवाब,
जो कुछ भी नहीं कहता।
फिर चुप्पी—
एक भारी, असहज ख़ामोशी,
मानो कोई बोझ
दोनों कंधों पर।
आँखें मिलाते हैं,
फिर चुरा लेते हैं,
जैसे कोई राज़ छिपाना हो।
पुरानी बातें—
कहाँ से शुरू करें?
स्कूल के दिन?
कॉलेज की मौज-मस्ती?
वो शरारतें, वो सपने?
सब धुँधला-सा है,
जैसे कोई पुरानी तस्वीर,
जिसका रंग उड़ गया हो।
“क्या चल रहा है आजकल?”
एक और सवाल,
एक और कोशिश
इस चुप्पी को तोड़ने की।
“बस, वही... दफ़्तर, घर...”
एक अधूरा जवाब,
जैसे ज़िंदगी
एक दायरे में सिमट गई हो।
हम बदलते हैं,
वक़्त बदलता है,
रास्ते अलग हो जाते हैं।
कुछ रिश्ते,
बस यादों में रह जाते हैं—
जैसे कोई भूला हुआ गीत,
जो कभी गुनगुनाया था।
कोशिश करते हैं,
कुछ और कहने की,
कुछ और पूछने की,
पर शब्द,
जैसे खो गए हों
इस पहचान की धुंध में।
फिर अलविदा—
एक हल्की-सी मुस्कान के साथ,
जैसे कोई बोझ
उतर गया हो।
हम फिर मुड़ जाते हैं
अपनी-अपनी राहों पर,
शायद
फिर कभी न मिलने के लिए।
बस रह जाती है
एक हल्की-सी कसक,
एक अनकही बात,
एक धुँधली-सी याद,
और एक सवाल...
क्या सच में
हम कभी दोस्त थे?
या बस
कुछ चेहरे,
जो वक़्त के साथ
धुँधले पड़ गए?