मेरी चौदह वर्ष पुरानी ज़ेहन में बसी
दो आंखें
एक पल को मन किया तो था
कि उस अकेले कमरे में तुम्हारे
कोमल हाथों के महकते पौधे में लता सी
लिपट जाऊँ
फिर तुम्हारे नजदीक बैठकर
तुम्हारे लहराते केशों को सहलाते हुए
अपने दामन में समेट लूँ तुम्हारे सारे
अमृत समान आँसू !
मगर क्या करूँ ? मेरी देह को देखती
करोड़ों निर्दय आँखों का खौफ़ बना रहा!
मैं मिलना चाहती थी तुममें
ओस की उस बूँद की तरह
धरती की मिट्टी जिसे हौले से सोख़ ले
और जिसकी सोंधी-सोंधी खुशबू से
तुम्हारा सारा बदन महक जाए
फिर हाथों से जिसे छूने की
कभी जरूरत ना हो
बस सांसें छुएँ और दिल की धड़कन को
महसूस हो!
जब मैं तुम्हारी थी,तब तुम मेरे नहीं
अब जब तुम मेरे हो गए,तो मैं तुम्हारी नहीं
पर,ये दिल है कि अब भी ज़िद में है
कि बचपन की तरह एक बार फिर लुकाछुपी खेला जाए
मैं जाकर छुप जाऊँ
तुम्हारे आंगन के किसी कोने में
तुम बांधलो अपने हाथ के कलाबा से
और ये सारी दुनिया ढूंढती रहे! !
अब ये तो होने से रहा ख्वाबों में भी
पर,तुम रोज आज भी सुबह की पहली उजली शीतल धूप बनकर आते हो
तुमने चूमा है मुझे
पाँवों से सिर तक और सिर से पावों तक
लगातार लगातार
कभी बारिश की भीनी-भीनी फुहार बनकर
भिगा देते हो मेरे रोम-रोम को
कभी
बारिश की भीनी-भीनी नटखट फुहार बनके भींगा देते हो मुझको
कभी वासंती हवाओं से
खींचते हो मेरा आँचल
मेरी लट को कभी सुलझाते हो
तो कभी बिखरा देते हो!
चौदह वर्ष , हाँ चौदह वर्ष
मेरी रग रग में शबनम से घुले रहे हो
मेरा नाम,वैसे ही कुढ़ा रहे हो
या यूँ कहूँ कि अब तक मुझे
बहुत सता रहे हो
रात की दूधिया चांदनी,
तारों की झिलमिलाती बारात
दिखा कर ध्रुव तारा,
दे के प्रेम भरा स्पर्श नेग
मेरी मांग को हर रोज सजा रहे हो!
सुनो!
मेरे दाहिने आँख के आंसू
मेरे कंपकंपाते लब की
मंद-मंद मधुर मुस्कान
मेरे बाएं हाथ के नीचे भींगते तकिये का कोना
डायरी के पैराग्राफ पर उठते-बैठते हस्ताक्षर !
तुम हो तो ही हूँ मैं,
वरना कब की ही मर जाती!!