जो गीत मैं अपने वतन में गुनगुनाता हूँ


जो गीत मैं अपने वतन में गुनगुनाता हूँ
सरहद के पार भी वही गाता है कोई

मैं बादलों के परों पे जो कहानियाँ लिखता हूँ
वो संदली हवा की सरसराहट में सुनाता है कोई

उस पार भी हिजाब की वही चादर है
शाम ढले रुखसार से जो गिराता है कोई

मैं जून की भरी धूप में होली मना लेता हूँ
जब रेत की अबीरें कहीं उड़ाता है कोई

मेरे मन्दिर में आरती की घंटियाँ बज उठती हैं
किसी मस्जिद में अजान ज्यों लगाता है कोई

मुझे यकीं होता है इंसान सरहदों से कहीं बढ़कर है
जब किसी रहीम से राम मिलकर आता है कोई
 


तारीख: 23.08.2019                                    सलिल सरोज




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