इजहार-ए-इश्क का
वक्त तो दिया होता
तेरे आशिकों की फेरिस्त में
हम भी तो शामिल थे
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कुछ आरजू मेरे भी थे जिदंगी जीने के कभी
पर में जी ना सका अपनी तरह से
गुनाहगार कोई और नही मै ही था कसूरवार
खुद को कभी मौका ही नही दिया
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गुम सा गया हूँ
कँही अपनों के बीच में
वो जा चुके है
जो हमसे इत्तेफाक रखा करते थें
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वफा निभाने की कसम खाई है
जिदंगी और मौत से
जिदंगी अब जा चुकी है
मौत का इंतजार है
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कौन है वो!
ये बताना उसकी शान में गुस्ताखी होगी
जो हमें भूलकर संकू से जी रहे है