
शहर में यूँ तो कई थे, पर अकेला वो आदमी
अपनी लाश को घसीट के चलता वो आदमी
धूप थी, छाँव थी, दुनिया की हर परवाह थी
जाने किस धुन में मगर, बस निकलता वो आदमी
आँख में वीरानियाँ, लब पर हँसी का शोर था
भीड़ में रहकर भी सबसे, अलग था वो आदमी
ख्वाब थे बिखरे हुए, उम्मीद की शमशान थी
रात-दिन जलता हुआ पर, न बुझता वो आदमी
रूह पर कितने ही ज़ख्मों का निशाँ था साफ़-साफ़
फिर भी जीने का हुनर खूब जानता वो आदमी