समय की
डाल पर बैठे
सन्नाटे के सुए।
कोलाहल अभिशप्त
हो गया है।
जीवन गहरी नींद
सो गया है।।
महल वैभवशाली है
झुग्गी को-
घृणा छुए।
दफ्तर टेढ़ी चाल
चल रहे हैं।
सपने मोम जैसे
गल रहे हैं।।
कैसी आजादी कि
हजारों-
अग्निदाह हुए।
गाँव सदा
एकाकी जीते हैं।
इच्छाओं के सब-
घट रीते हैं।।
महानगर के
खेल होंगे
भोग-विलास-जुए।