हाय रे दीवानी


दीवानी की चाहत देखो, नामुमकिन सी दृढ आस है।
कण कण में प्रियतम दिखे उसे, रग रग में लिए सुवास है।
चाहत का लिए फिरे खजाना, करती अथक प्रयास है।
नर्तन करती ढूंढे प्रियतम, न खाने की सुध न प्यास है।
प्रेम की रवानी सी है, स्वार्थ से अनजानी वो।
प्रियतम ही जिंदगानी उसकी, हाय रे दीवानी वो।

 

हर वक्त निहारा करती है, अपनी चाहत को एक दर्पण में।
चाहे वस्त्र मलीन से हों, पर कमी नहीं समर्पण में।
माया तम में गुम है प्रेमी, विलंब है प्रेम वर्षण में।
संगम की वेला आएगी, चाहे वक्त लगे प्रिय दर्शन में।
पहचानी सी है कहानी उसकी, जग से है बेगानी वो।
प्रियतम ही जिंदगानी उसकी, हाय रे दीवानी वो।

 

राधा की दासी कहूँ उसे, या मीरा की कहूँ नवासी मैं।
कोमल मृदुभाषी कहूँ उसे, या प्रियतम की हृदवासी मैं।
बेरंग उदासी है वो नहीं, न ही लगती आभासी है।
आधी सन्यासी कहूँ उसे, या कहूँ निश्छल चारुहासी मैं।
रूहानी सी लगती सुबहानी, नादानी है अज्ञानी वो।
प्रियतम ही जिंदगानी उसकी, हाय रे दीवानी वो।

 


तारीख: 09.08.2017                                    विवेक सोनी




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