माँ, मैं अब क्षमा चाहता हूँ 

इस कविता में कवि अपनी माता से क्षमा चाहता हैं क्योंकि उसने अपनी माता की अमूल्य यादों को बुद्धि से निकाल कर एक कागज अर्थात् निर्जीव-से चित्र में समेटना चाहा ।इस कविता का आशय यह है कि कवि अपनी माता को यादों के माध्यम से ही पर स्वयं में जिन्दा रख सकता है ।पर जैसा कि कविता में बताया है कि कवि ने अपनी माता को यादों से निकाल कर एक कागज पर सिमटा दिया जिससे उसकी माता उससे दूर- बहुत दूर हो गए ।इसी अपराध- बोध में वह अपनी माता से क्षमा चाहता हैं ।

 

माँ !
तुम क्यों चली गई ?
मुझे अकेला छोड़ 
निरीह-नीरस और जड़
जीवन में 
जिसका न आदि हैं
और न अन्त 
जिसका न आधार हैं 
और न विकास 

 

पर, माँ !
मैं अब क्षमा चाहता हूँ 
कोरे-बेरंग कागज को रंगीन कर 
तुम्हारी यादों को 
चित्रों में समेटना चाहा 
भाग्य की  टेढ़ी-मेढ़ी,फीकी और सख्त 
लक्कीरों को  गहरा करना चाहा 

 

पर, माँ !
मैं अब क्षमा चाहता हूँ 
मंद-मस्त बादलों जैसे लहरातें 
तुम्हारे धने-काले बालों से 
तुम्हारे झुर्रियों भरे चेहरों को सहलाना चाहा 
चित्र की उदासी को मिटाना चाहा 

 

पर, माँ !
मैं अब क्षमा चाहता हूँ 
समुद्र की लहरों में गोते खाती 
तुम्हारी आँखों के कोरों से 
बहते आँसुओं को 
कई रंगों से सजाना चाहा 
चित्र की सख्ती को मिटाना चाहा 

 

पर, माँ !
मैं अब क्षमा चाहता हूँ 
तुम्हें यादों से निकाल 
चित्रों में समेटना चाहा 


 


तारीख: 16.07.2017                                    आरती









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है