तुम्हारी विराटता

 

यह धरती
यह आकाश
अनगिनत अस्तित्वों का वास

यह चीखती शान्ति
यह नाचती भ्रान्ति

यह कितने कितने सौंदर्य
यह कितनी कितनी मौतें

यह अथाह नशीला रस
यह निपट घोर नीरस

यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म दर्शन
यह विराट ब्रह्माण्ड नर्तन

भोगता हूँ जब-जब
देखता हूँ जब-जब
सोचता हूँ जब-जब
पागल हो जाता हूँ
सन्न रह जाता हूँ
हिल जाता हूँ आत्मा की गहराईयों तक

लगता है सहर्ष कत्ल करवाता हूँ अपना
तुम्हारी शून्यता के चलते
तुम्हारी विराटता के चलते

क्या करूँ?
कुछ करने को छोड़ा है तूमने?
हे सृष्टा
हे रचनाकार!


तारीख: 15.04.2020                                    पुष्पेंद्र पाठक









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