(नया रिश्ता)
नया-नया जब प्यार जगे, क्या जोश, क्या उमंगें थीं,
हर कैफ़े, हर नुक्कड़ पर, दिल की बजती जल-तरंगें थीं।
नई डिश हो, या बातें हों, सब कुछ कितना ताज़ा था,
घंटों बतियाते रहते थे, समय का न अंदाज़ा था।
चेहरा उसका देख के ही, दिल रौशन हो जाता था,
समय पंख लगा उड़ता, कम ही ये लगता जाता था।
कोई छोटी सी भी जगह, जन्नत सी लग जाती थी,
बस उसका होना काफ़ी था, हर शाम महक जाती थी।
साधारण सी जगह भी जैसे, ख़ास नज़र से तकते थे,
वक़्त की गिरफ़्त ढीली पड़ती, जब हाथ पकड़ कर रखते थे।
छोटी सी मुस्कान पे उसकी, जैसे मौसम बदल जाते,
हर शाम उसी के होने से, मेरे सारे ग़म पिघल जाते।
(पुराना रिश्ता)
वही रिश्ता जब थक जाए, मिलना भी फ़र्ज़ निभाना है,
उसी मेज़ पर ख़ामोशी का, अब बोझ सा इक उठाना है।
ऑर्डर से पहले की चुप्पी, जिसमें अनगिन बातें दफ़्न,
क्या बोलें जब अल्फ़ाज़ों पर, चढ़ा हो गुस्से का कफ़न?
उतरे चेहरे, भारी पलकें, ज़ुबाँ पे शिकवे ठहरे हैं,
या शायद अब कहने सुनने को, ज़ख़्म ही इतने गहरे हैं?
ज़रा सी ठेस पे छिड़ जाए, वो जंग जो अंदर पलती है,
हर हर्फ़ पुराने ज़ख़्मों की, फिर नोक सी बन के छलती है।
खाना आता, निवाले भारी, वक़्त कटे बस इसकी आस,
रूह कहीं भटके दोनों की, ना पास होकर भी पास।
महंगी रातें, उम्दा मंज़र, क्यूँ रूह को अब ना भाते हैं?
या हम ही वक़्त के हाथों में, किरदार बदलते जाते हैं?
नज़र चुरा कर फ़ोन देखना, या बाहर यूँही ताकना,
बेमतलब की बातों पर भी, बेवजह ही भड़कना।
है कैफ़े वही, वही साये, एहसास मगर क्यूँ मर जाता है?
क्या इश्क़ भी आदत बनकर के, रफ़्ता-रफ़्ता थक जाता है?